Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 4
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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राग-द्वेष नामके दुत द्वारा जिनराजके पास यह सन्देश भेजा कि आप या तो मुक्ति-कन्यासे विवाह करनेका अपना विचार छोड़ दें और अपने ज्ञान, दर्शन, चारित्ररूप सुभटोंको मुझे सौंप दें; अन्यथा युद्ध के लिये तैयार हो जाएँ । जिनराजने कामदेवसे युद्ध करना स्वीकार किया और अन्तमें उसे पराजित कर शिवरमणीको प्राप्त किया । इस प्रकार इस रूपक-काव्य में कविने सरस रूपमें इन्द्रियनिग्रह और विकारोंको जीतनेकी ओर संकेत किया है। यहां हम उदाहरणार्थ इस रूपक काव्य में राग-द्वेषादिके युद्धका वर्णन प्रस्तुत करते हैं
राय-रोस खम-दमहं महाभह । आसव-बंध गुणहं दह-लंपडे ।। चारित्तहं सइ भिडिय असं जम । णिज्जर-गुणहं कम्म कय-घण-तम || गारव तिण्णि भिडिय सिवपंथहं । अणय पधाइय णयह पयत्थहं ।। अण्ण वि जे जसु समुह पइट्टा । ते तमु सपल वि रणि आभिठ्ठा ।। तहि अवसरि पुच्छिउ आणंदें । सिद्धिरूउ सरवदउ जिणिदे॥ अम्हहं बल कारणे कि ण । मयरद्धय-सेण्ण हो संतद्राउ ।। उपमम-सेढिय-भूमिहि लगउ । तें कज्जेण जिणेसर भग्गउ॥ एवहिं खाइय-भूमि चावहि । परबल उच्छरंतु बिहडावहि ॥
तो परणइ-सहाव संगूढ । म्खवग-सेढ़ि जिबल आम्दन || महाभट राग और द्वेष, क्षमा और दमनसे भिड़ गये | दस लंपट आसव और बन्ध गणोंस युद्ध करने लगे। असंयम चारित्रसे भिड़ा। सधन अंधकार उत्पन्न करनेवाले कर्म निर्जरागणसे युद्ध करने लगे । तीन गारव शिवपंथसे भिड़ गये और अनय प्रशस्त नयों पर दौड़ पड़े। अन्य सुभट भा जिनके सम्मुख पड़े वे सब उनसे रणमें आकर युद्ध करने लगे । इस अवसर पर जिनेन्द्रने आनन्दपूर्वक सिद्धिरूप स्वरोदय ज्ञानीसे पूछा कि हमारा चल किस कारणसे नष्ट हुआ और मकरध्वजके शंन्यसे संत्रस्त हुआ ? तब उस ज्ञानीने बतलाया कि हे जिनेश्वर तुम्हारा बल उपशम-श्रेणोकी भूमि पर जा लगा था । इस कारण वह भग्न हुआ | अब उसे क्षायिक भूमि पर चढ़ाइये, जिससे वह आगे बढ़ता हुआ शत्रुबलको नष्ट कर सके । तब स्वभाव परिणतिसे संगूढ़ वह जिनबल क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ हुआ। फिर श्रेष्ठ रथोंके संघटनोंने, उत्तम घोड़ोंके समूहोंने, गुलगुलाते हए हाथियोंके ब्यूहोंने एवं महाभटोंने ध्वजार्ग उड़ाते हुए सम्मुख बढ़कर अपनेअपने घात दिखलाये। ___ इस वर्णनसे स्पष्ट है कि कविने सैद्धान्तिक विषयोंको काव्यके रूपमें प्रस्तुत किया है। पौराणिक तथ्योंकी अभिव्यंजना भी यथास्थान की गई है। द्वितीय संधिके ६१, ६२, ६३ और ६४वें पद्योंमें कामदेवने अपनी व्यापकताका परिचय
आचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : २२१