Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 4
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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मोह-सो हे फौजदार क्रोध सो है कोतवार; लोभ-सो वजीर जहाँ लूटिबेको रह्यो है । उदेको जु काजी माने, मानको अदल जाने, कामसेनाका नवीस आई बाको को है ! ऐसी राजधानी में अपने गुण भूलि रह्यो; सुधि जब आई तबे ज्ञान आय गह्यो है | सुबुद्धि चेतन राजाको समझाती है
कौन तुम कहाँ आए, कौन बौराये तुमह; काके रस राचे कछु सुधहू घरतु हो । कौन है वे कमं, जिन्हें एकमेक मानि रहे; अजहू न लागे हाथ भावरि भरतु हो || वे दिन चितारो, जहाँ बीते हैं अनादि काल; कैसे-कैसे संकट सहे हू विसरतु हो । तुम तो सयाने पै सयान यह कौन कीन्हो; तीन लोक नाथ के दीनसे फिरतु हो ।
पश्चेन्द्रियसंवाद - में बताया गया है कि एक सुरम्य उद्यानमें एक दिन एक मुनिराज धर्मोपदेश दे रहे थे। उनकी धर्मदेशनाका श्रवण करनेके लिए अनेक व्यक्ति एकत्र हुए । सभामें नानाप्रकारकी शंकाएं की जाने लगीं । एक व्यक्तिने मुनिराजसे पूछा- 'पंचेन्द्रियोंके विषय सुखकर हैं या दुखकर ?' मुनिराज बोले"ये पंचेन्द्रियाँ बड़ी दुष्ट हैं। इनका जितना ही पोषण किया जाता है, दुःख ही देती हैं।"
एक विद्याधर बीच में ही इन्द्रियोंका पक्ष लेकर बोला- "महाराज इन्द्रियाँ दुष्ट नहीं हैं, इनकी बात इन्हीं के मुख से सुनिये। ये प्राणियोंको कितना सुख देती हैं ?"
मुनिराजका संकेत पाते हो सभी इन्द्रियाँ अपने-अपने को बड़ा सिद्ध करने लगीं । पश्चात् मुनिराजने उन सभी इन्द्रियों और मनको समझाकर बताया कि तुम सबसे बड़ी आत्मा हो । राग-द्वेषके दूर होनेपर आत्मा ही परमात्मा बन जाता है !
इस पंचेन्द्रिय-संवाद में इन्द्रियोंके उत्तर- प्रत्युत्तर बड़े ही सरस और स्वाभाविक हैं। प्रत्येक इन्द्रियका उत्तर इतने प्रामाणिक ढंगसे उपस्थित किया है, जिससे पाठक मुग्ध हो जाता है । सर्वप्रथम अपने पक्षको स्थापित करती हुई नाक कहती है
आचार्यस्य काव्यकार एवं लेखक : २६९