Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 4
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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सूर बलवंत मदमत्त महामोहके, निकसि सब सैन आगे जु आये । मारि घमासान महाजुद्ध बहुक्रुद्ध करि, एक ते एक सातों सवाए | वीर- सुविवेकने धनुष ले ध्यानका मारि के सुभट सातों गिराए । कुमुक जो ज्ञानकी सेन सब संग घसी मोहके सुभट मूर्छा सवाए | रणसिंगे बज्जहि कोऊ न भज्जह, करहिं महा दोऊ जुद्ध । इत जीव हंकारहि, निजपर दारहि, करहै अरिनको रुद्ध ||
शतमष्टोत्तरी- इसमें १०८ पद्य है । कविने आत्मज्ञानका सुन्दर उपदेश अंकित किया है । यह रचना बड़ी ही सरस और हृदयग्राह्य है । अत्यल्प कथानकके सहारे आत्मतत्त्वका पूर्ण परिज्ञान सरस शैली में करा देने में इस रचनाको अद्वितीय सफलता प्राप्त हुई है । कवि कहता है कि चेतनराजाको दो रानियाँ है, एक सुबुद्धि और दूसरी माया माया बहुत ही सुन्दर और मोहक है। सुबुद्धि बुद्धिमती होनेपर भी सुन्दरी नहीं है। चेतनराजा मायारानीपर बहुत आसक्त है। दिन-रात भोग-विलास में संलग्न रहता है । राजकाज देखनेका उसे बिल्कुल अवसर नहीं मिलता। अतः राज्यकर्मचारी मनमानी करते हैं । यद्यपि चेतन राजाने अपने शरीर - देशको सुरक्षाके लिए मोहको सेनापति, क्रोधको कोतवाल, लोभको मंत्री, कर्मोदयको काजी, कामदेवको वैयक्तिक सचिव और ईर्ष्या-घृणाको प्रबन्धक नियुक्त किया है। फिर भी शरीर देशका शासन चेसनराजाकी असावधानी के कारण विशृंखलित होता जा रहा है । मान और चिन्ताने प्रधानमंत्री बननेके लिए संघर्ष आरंभ कर दिया है। इधर लोभ और कामदेव अपना पद सुरक्षित रखने के लिये नाना प्रकारसे देशको त्रस्त कर रहे हैं । नये-नये प्रकारके कर लगाये जाते हैं, जिससे बारीर-राज्य की दुरवस्था हो रही है। ज्ञान, दर्शन सुख वीर्य, जो कि चेतन राजाके विश्वासपात्र अमात्य है, उनको कोतवाल सेनापति, वैयक्तिक सचिव आदिने खदेड़ बाहर कर दिया है। शरीर - देशको देखने से ऐसा प्रतीत होता है कि यहाँ चेतनराजाका राज्य न हो कर सेनापति मोहने अपना शासन स्थापित कर लिया है। चेतनकी आशाको सभी अवहेलना करते हैं ।
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माधा-रानी भी मोह और लोभको चुपचाप राज्य शरीर-संचालन में सहायता देती है । उसने इस प्रकार षड्यन्त्र किया है जिससे वेतन राजाका राज्य उलट दिया जाय और वह स्वयं उसकी शासिका बन जाये । जब सुबुद्धिको चेतनराजा के विरुद्ध किये गये षड्यन्त्रका पता लगा तो उसने अपना कर्तव्य और धर्म समझकर चेतन राजाको समझाया तथा उससे प्रार्थना की- "प्रिय चेतन, तुम अपने भीतर रहनेवाले ज्ञान, दर्शन आदि गुणोंकी सम्हाल नहीं करते ।
आचार्य तुल्य काव्यकार एवं लेखक : २६७