Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 4
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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१. पदसाहित्य
२. आध्यात्मिक रूपककाव्य
३. एकार्थ काव्य
४. प्रकीर्णककाव्य
४.
१. पसाहित्य इनके पदसाहित्यको १. प्रभाती, २. स्तवन, ३. अध्यात्म, वस्तुस्थितिनिरूपण, ५. आत्मालोचन एवं ६. आराध्य के प्रति दृढतर विश्वास, विषयों में विभाजित किया जा सकता है । वस्तुस्थितिका चित्रण करते हुए बताया है कि यह जीव विश्वकी वास्तविकता और जीवन के रहस्योंसे सदा आँखें बन्द किये रहता है । इसने व्यापक विश्वजनीन और चिरन्तन सत्यको प्राप्त करनेका प्रयास नहीं किया । पार्थिव सौन्दर्यके प्रति मानव नैसर्गिक आस्था रखता है । राग-द्वेषोंकी ओर इसका झुकाव निरन्तर होता रहता है, परन्तु सत्य इससे परे है, विविधनामरूपात्मक इस जगत्से पृथक् होकर प्रकृत भावनाओं का संयमन, दमन और परिष्करण करना ही व्यक्तिका जीवन-लक्ष्य होना चाहिए। इसी कारण पश्चात्तापके साथ सजग करते हुए वैयक्तिक चेतना में सामूहिक चेतनाका अध्यारोप कर कवि कहता है
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अरे में तु यह जन्म गमायो रे, बरे तें ॥ पूरब पुण्य किये कहुँ अति हो, तातै नरभव पायो रे । देव धरम गुरु ग्रन्थ न परसे, भटक भटकि भरमायो रे || अरे०||१| फिरि सोको मिलिबो यह दुरलभ दश दृष्टान्त बतायो रे ।
जो चेते तो चेत रे भैया, तोको करि समुझायो रे || अरे ०|| २ || आत्मालोचन सम्बन्धी पदोंमें कविने राग-द्वेष, ईर्ष्या, घृणा, मद, मात्सर्य आदि विकारोंसे अभिभूत हृदयकी आलोचना करते हुए गूढ़ अध्यात्मकी अभिव्यञ्जना की है । कवि कहता है
छोड़ि दे अभिमान जियरे, छाँड़ि दे अभि० ॥टेक॥ काको तु भय कौन तेरे, सब ही हैं महिमान ।
देखा राजा रंक कोळ, थिर नहीं यह यान ! | जियरे०|| १ || जगत देखत तेरि चलवो, तू भी देखत आन ।
घरी पलकी खबर नाहीं, कहा होय विहान || जय || २ || त्याग कोष रु लोभ माया मोह मदिरा पान । राग-दोषह टार अन्तर, दूर भयो सुरपुर-देव कबड़े, कबहुँ धम कर्मवश बहु नाच नाचे, भैया
कर अज्ञान || जय || ३ || नरक निदान ।
आप पिछान | जियरे०||४|| आचार्य तुल्य काव्यकार एवं लेखक : २६५