Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 4
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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प्राकृत और अपभ्रंश इन तीन भाषाओं में प्रबन्ध-रचना लिखने के लिये नियमन किया है । ८वीं शताब्दी तक आते-आते अपभ्रंश-काव्यका रूप इतना विश्रुत और लोकरंजक हो चुका था कि उद्योतनसुरिने अपनी कुवलयमाला (वि० सं० ८३५) में संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंशको तुलना करते हुए लिखा है-संस्कृत अपने बड़े-बड़े समासों, निपातों, उपसगी, विक्तियों और लिगाको दुर्गमता कारण दुर्जन हृदयके समान विषम है। प्राकृत समस्त कला-कलापोंके मालारूपी जन-कल्लोलोंसे संकुल लोकवृतान्तरूपी महोदधि-महापुरुषोंके मुखसे निकली हुई अमृतधाराको विन्दु-सन्दोह एवं एक-एक क्रमसे वर्ण और पदोंके संघटनसे नानाप्रकारकी रचनाओंके योग्य होते हुए सज्जन-वचनके समान सुखसंगम है और अपभ्रंश संस्कृत, प्राकृत दोनोंके शुद्ध-अशुद्ध पदोंसे युक्त तरंगों द्वारा रंगीली चालवाले नववर्षाकालके मेघों के प्रपातसे पुरद्वारा प्लावित नदीके समान सम और विषम होती हुई प्रणय-कुपिता प्रणयिनीके वार्तालापके समान मनोहर होती है।
राजशेखर, हेमचन्द्र आदिने भी अपभ्रश-भाषाके काम्पोषित रूपपर विचार किया है और सभीने मुक्तकण्ठसे अपभ्रंशको काध्यकी भाषा स्वीकार किया है। महाकवि कालिदासके 'विक्रमोर्वशीय' नाटक में अपन'शके अन्य प्रबन्ध-काव्योंकी अपेक्षा भाषाका सर्वाधिक समृद्ध और परिष्कृत रूप प्राप्त होता है। ८वीं शतीसे अपभ्र शके प्रबन्ध-काव्योंको परम्परा प्राप्त होने लगी है। बउमुहु-चतुर्मुखका अबतक कोई काव्य उपलब्ध नहीं है । पर 'पउमचरिउ' को उत्थानिका एवं प्रशस्तिसे यह ध्वनिप्त होता है कि चतुर्मुखदेवने महाभारतकी कथा लिखी थी। पञ्चमी-परित भी उनकी कोई रचना रही है। बतएव संक्षेपमें यही कहा जा सकता है कि इन लेखकोंने संस्कृत और प्राइतके समान हो अपभ्रंश-भाषामें भी सरस काव्य-रचनाएं लिखी हैं। इन रचनाबोंमें काम्यतत्त्वके साथ दर्शन मौर आवारके सिद्धान्त भी प्राप्स होते हैं । हम यही अपभ्रश-भाषाके कमियोंका इतिवृत्त अंकित करेंगे। वस्तुत: मध्यकालीन साहित्यका इतिहास ही अपनसका इतिहास है। जैमाचार्यों ने इस भाषामें सहस्रों रचनाएँ लिखी हैं।
कवि चतुर्मुख चतुर्मुख कवि अपन शके ख्यातिप्राप्त कवि हैं। स्वयंभुने अपने 'पउमचरित 'रिटुणेमि-चरित' और 'स्वयंभुश्छन्द' में चतुर्मुख कविका उल्लेख किया है । महाकवि ९४ : तीर्थकर महावीर और उनकी भावार्य-परम्परा