Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 4
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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महत्वपूर्ण है । इसमें ४ सन्धियाँ हैं ! और सिद्धचक्रका महात्म्य बतलानेके लिए चम्पापुरकं राजा श्रीपाल और नयनासुन्दरीका जीवनवृत्त अंकित है । नयनासुन्दरीने सिद्धचक्रव्रतके अनुष्ठानसे अपने कुष्ठी पति राजा श्रीपाल और उनके ७०० साथियाँको कुष्ठरोगसे मुक्त किया था ।
कविकी दूसरी रचना 'चंदप्पचरिउ' में अष्टम तीर्थंकर चन्द्रप्रभका जीवन गुम्फित है । इस ग्रन्थको पाण्डुलिपि नागौरके भट्टारकीय शास्त्र भण्डारमें सुरक्षित है।
सुप्रभाचार्य
सुप्रभाचार्यने उपदेशात्मक ७७ दोहोंका एक 'वैराग्यसार' नामक लघुकाय ग्रन्थ लिखा है । कवि दिगम्बर सम्प्रदायका अनुयायी है । कविने स्वयं दिगम्बर साधुका रूप उपस्थित किया है। लिखा है
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रिसिदयवरवंदिण सयण जं सुहु लहि विनअंति । झटितं धरू सुप्प भई घोरमसाणु नर्भाति ॥ ४६ ॥
डॉ० हरिवंश कोछड़ने कविका समय विचारधारा, शैली और भाषा के आधार पर ११वीं और १३वीं शताब्दीके मध्य माना है ।
कविकी यह रचना सांसारिक विषयोंकी अस्थिरता और दुःखोंकी बहुलताका प्रतिपादन कर धर्ममें स्थिर बने रहनेके लिये प्रेरित करती है । कचिने लिखा है
सुप्पर भइ रे धम्मियहु, खसहू म धम्म णियाणि । जे सूरग्गमि धवल धरि, ते अंधवण मसाण ॥२॥ सुप्प भई मा परिहरहु पर-उवचार ( यार ) चरत्यु | ससि सूर दुहु अंधर्याणि अहं कवण थिरत्यु || ३ ||
अर्थात् सुप्रभ कवि कहते हैं कि हे धार्मिको ! निश्चित धर्मसे स्खलित न हो । जो सूर्योदय के समय शुत्र गृह थे, वे ही सूर्यास्त पर श्मशान हो गये । अतएव परोपकार करना मत छोड़ो, संसार क्षणिक है । जब चन्द्र और सूर्य अस्त हो जाते हैं, तब कौन स्थिर रह सकता है ।
यह संसार वस्तुतः विडम्बना है, जिसमें जरा, यौवन, जीवन मरण, धन, दारिद्रय जैसे विरोधी तत्त्व हैं । बन्धु बान्धव सभी नश्वर हैं, फिर उनके लिए पाप कर धन संचय क्यों किया जाय। कवि इसी तथ्यकी व्यंजना करता हुआ कहता है-
आचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : १९७