Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 4
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
View full book text
________________
'मिणाहचरिज' की दो पाण्डुलिपियाँ उपलब्ध हैं। एक पाण्डुलिपि पंचायतीमंदिर, दिल्ली में सुरक्षित है, जिसका लेखनकाल वि० सं० १५९२ है । इस अन्धकी दूसरी पाण्डुलिपि वि० सं० १५१० की लिखी हुई प्राप्त होती है। यह प्रति पाटौदी शास्त्र-भण्डार जयपुर में है। अतएव यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि ग्रन्थकी रचना वि० सं० १५१० के पूर्व हई है। भाषा-शैली और वर्णनक्रमकी दृष्टिले मह अन्य थीं शताब्दीका होना चाहिए। प्रायः यह देखा जा सकता है कि प्राचीन अपभ्रश-काव्योंमें छन्दका वैविध्य नहीं है । इस प्रस्तुत ग्रन्थमें भी छन्द-वैविध्य नहीं पाया जाता है। हेला, दुबइ और वस्तुबन्ध आदि थोड़े ही छन्द प्रयुक्त हैं । रचना
विकी एकमात्र 'णेमिणाहचरिउ' रचना ही उपलब्ध है। इस ग्रन्थमें चार सन्धियाँ या चार परिन्छद और ८३ नाड़वक हैं । ग्रन्थ-प्रमाण १३५० श्लोकके लगभग है। प्रथम सन्धिम मंगल-स्तवनके अनन्तर, सज्जन-दुर्जन स्मरण किया गया है । तदनन्तर कविने अपनी अल्पज्ञता प्रदर्शित की है । मगधदेश और राज्यगृह नगरके वर्णनके पश्चात् कवि राजा श्रेणिक, द्वारा गौतम गणधरसे नेमिनाथका वरित वर्णन करनेके लिए अनुरोध कराता है । बराडक देश में द्वारावती नगरीमें जनार्दन नामका राजा राज्य करता था | वहीं शौरीपुरनरेश समुद्रविजय अपनी शिवदेवीके माथ निवास करते थे। जरासन्धके भयसे यादवगण शौरीपर छोड़ कर द्वारकामें रहने लगे। यहीं तीर्थंकर नेमिनाथका जन्म हुआ और इन्द्रने उनका जन्माभिषेक सम्पन किया ।
दूगरी संधिमें नेमिनाथकी युवावस्था, वसन्तवर्णन, पुष्पावचय, जलक्रीड़ा आदिके प्रसंग बाये हैं। नेमिनाथके पराक्रमको देखकर कृष्णको ईर्ष्या हुई और वे उन्हें किसी प्रकार विरक्त करने के लिए प्रयास करने लगे | जुनागढ़के राजाको पुत्री राजीमतिके साथ नेमिनाथका विवाह निश्चित हुआ। बारात सजधज कर जूनागढ़के निकट पहुँचती है। और नेमिनाथकी दृष्टि पार्श्ववर्ती बाड़ोंमें बन्द चीत्कार करते हुए पशुओपर पड़ती है। उनके दयालु हृदयको वेदना होती है और वे कहते हैं यदि मेरे विवाहके निमित्त इतने पशुओंका जीवन संकट में है सो ऐसा विवाह करना मैंने छोड़ा। ___ पशुओंको छुड़वाकर रथसे उतर कंकण और मुकुट फंककर वे वनको ओर चल देते हैं। इस समाचारसे बारात में कोहराम मच जाता है। राजमती मूळ खाकर गिर पड़ती है। लोगोंने नेमिनाथको लौटानेका प्रयत्न किया, किन्तु सब व्यर्थ हुआ। वे पासमें स्थित ऊर्जयन्तगिरिपर चले जाते हैं। और सहस्नाम्र २०८ : तीर्थकर महावीर और उनको आचार्यपरम्परा