Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 4
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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है। वह चन्द्रप्रभके जिनालय में जाकर विधिवत् भक्तिभाव करता है। इतने में वहाँ एक विद्याधर उपस्थित होता है और उससे कहता है कि में तुम्हें विमानमें हस्तिनापुर पहुँचाने के लिए लाया है। भविष्यदत्त नानाप्रका रके रत्नोंको लेकर हस्तिनापुर आता है और माँके चरणवन्दन कर आशीर्वाद लेता है। दूसरे दिन प्रातःकाल भविष्यदत्त विविध प्रकारके मणि- माणिक्योंको लेकर राजाके समक्ष उपस्थित हुआ । भविष्यदत्तके मामाने राजासे कहा कि हमारे भजिके साथ बंधुदत्तका झगड़ा है । राजाने धनपति सेठको बुलाया; पर सेठने घर में विवाह होनेसे इस प्रसंगको टालना चाहा। तब राजाने उसे बलात् बुलाया | कमलश्रीने जाकर राजाके समक्ष भविष्यातुरूपाको नागमुद्रा तथा अन्य वस्त्राभूषण उपस्थित किये। राजा बन्धुदतकी करतूत को समझ गया और वह बन्धुदत्तको मारनेके लिये तैयार हुआ । पर भविष्यदत्तने उसके प्राणोंकी रक्षा की। राजाने भविष्यदत्तको आधा सिहासन दिया और अपनी पुत्रीको देनेका वचन दिया । धनपतिने कमलश्रीसे अपने व्यवहारके लिए क्षमा याचना की । भविष्यदत्तका भविष्यानुरूपा के साथ पाणिग्रहण सम्पन्न हुआ। राजाने भी आघा राज्य देकर अपनी पुत्री सुमित्राका भविष्यदत्त के साथ विवाह कर दिया ।
पंचम परिच्छेद भविष्यदत्तके राज्य करनेसे आरंभ होता है । भविष्यानुरूपाको दोहला उत्पन्न हुआ और उसने तिलकद्वीप जानेकी इच्छा प्रकट की । इतने में मनोवेग नामका एक विद्याधर भविष्यदत्त के पास आया और कहा कि मेरी माता तुम्हारे घरमें प्रिया के गर्भ में आई है। ऐसा मुझसे मुनिराजने कहा है । अतएव आप भविष्यानुरूपा के साथ मेरे विमानमें बैठकर तिलकद्वीपको यात्रा कोजिये । भविष्यदत्तने भविष्यानुरूपाको तिलकद्वीपका दर्शन कराया । भविष्यानुरूपाके गर्भसे सोमप्रभ नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। कुछ वर्षोंके पश्चात् कंचनप्रभ नामक द्वितीय पुत्र उत्पन्न हुआ । तदनन्तर तारा और सुतारा नामकी पुत्रियां उत्पन्न हुईं । सुमित्रा गर्भसे धरणीपति नामक पुत्र और धारिणी नामकी कन्या हुई । इस प्रकार भविष्यदत्त परिवार सहित राज्य करता रहा। उसने मणिभद्रकी सहायता से सिंहलद्वीप तक अपनी कीर्ति व्याप्त कर ली और अनेक राजाओं को अपने अधीन किया। एक दिन वह सपरिवार चारणऋद्धिधारी मुनिके दर्शनके लिए गया । उसने मुनिराज से श्रावकके व्रत ग्रहण किये !
षष्ठ परिच्छेद में भविष्यदत्तके निर्वाण-लाभका वर्णन है । कमलश्री, सुव्रताके साथ अधिक हो जाती है और घनपति ऐलकब्रत ग्रहण कर लेते हैं । बह कठोर तप कर दसवें स्वर्ग में इन्द्र होते हैं और कमलश्री स्त्रीलिंगका छेद कर रत्नचूल नामका देव होती है। भविष्यानुरूपा भी स्वर्गमें जाकर देव हुई और वहाँ पृथ्वीतल पर आकर पुत्र हुई ।
१४८: वीयंकर महावीर और उनकी बाचार्य-परम्परा