Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 4
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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सव्वंग-मलेण तिमिलानु | चन-जिगहा : को मिस्तु । परमेसरु सिरि मासोपवासि | गिरिकंदरे अहव मरााणवासि । सो पेविखवि परमाणदएण | पणिय पियपरमसणेहएण | इह पेसणजोगु ण अण्णु को वि | तो हउँ मि अह व फुडु पत्तु होइ । जाएप्पिणु अणुराएण वुत्तु । पारणउ करावहि मुणि तुरंत । लब्भइ पियमेलण भवसमुद्दे । वणकीलारोहणू गय वरिदे । इउ सुलगुड जीवहो भवि जि भए । दुलहउ जिणधम्मु भवण्णपए ।
दुलहड गुपनदाणु वि विमलु । मुत्ताहल-सिपिहि जेम जलु । अर्थात् मुनीश्वर सुदर्शनका दर्शन पाकर राजाको परमानन्द हुआ । उन्होंने अपनी गनी श्रीमतोसे कहा--'प्रिय ! इस समय हमें अपने कर्तव्यका निर्वाह करना चाहिए। मुनि आहार-दानको क्रिया सेवक-सेविकाओंसे सम्पन्न होने की नहीं। इसे तो मुझे या तुम्हें सम्पन्न करना होगा। अतएव तुम स्वयं जाकर धर्मानुराग सहित मासोपवासी मुनिराजकी पारणा कराओ। इस भवसागरमें प्रियमिलन, बनकोडा, राजारोहण आदि सुख तो इस जीवको जन्मजन्मान्तरमें सुलभ हैं; किन्तु इस भव-समुद्रमें जिनधर्मकी प्राप्ति दुर्लभ है । और उसमें भी अतिदुर्लभ है रद्ध सुपात्रदानका अवसर । जिस प्रकार मुक्ताफलकी सीपके लिये स्वातिनक्षत्रका जलबिन्दु दुर्लभ होता है। अतएव सद्भाव सहित घर जाकर अनुरागसहित इन मुनिराजको आहार कराओ, जो प्राशुक और गीला हो, मधुर और रसीला हो, जिससे इनका धर्मसाधन सुलभ हो ।
ऋटुकफलोंका आहार-दान करनेसे रानीको अनेक कुगतियोंमें भ्रमण करना पड़ा। प्रथम-सन्धिके १२ कड़वकोंमें कुगति-भ्रमणके अनन्तर मुनिराज द्वारा विधिपूर्वक सुगन्धदशमीव्रतका विवेचन किया गया है। और दुर्गन्धाने उस व्रतका विधिपूर्वक पालन किया है। कविने विमाता और तिलकमतीके संवादका भी अच्छा चित्रण किया है। परीक्षाके हेतु राजाने भोजका आयोजन किया और उसी भोजमें राजा पतिके रूप में पहचाना गया। इस प्रकार कदिने इस कथाको पूर्णतया सरस बनानेका प्रयास किया है।
बालचन्द्र कवि बालचन्द्रका सम्बन्ध उदयचन्द्र और विनयचन्द्रके साथ है । ये माथुरसंघके आचार्य थे। बालचन्द्रने अपने गुरुका नाम उदयचन्द्र बतलाया है । 'णिदुक्खसत्तमीकहा के आदिमें लिखा है
आचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : १८९