Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 4
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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तह पय-रउ णिरु उष्णय अमक्ष्यमाणु, गुज्जरकुल- गहू- उज्जोय भाणु । जो उपवराणीविलासु, एवंविह विउसहो रल्हणासु ।
तहो पणइणि जिणमइ सुहय-सील, सम्मत्तवंत णं धम्मलील | कह सीहु ताहि गब्र्भतरंमि, संभवित्र कमलु जह सुर-सरंमि । जण वच्छल सज्जणु जणियहरिसु, सुइवंत तिविह वहरायसरि । उप्पणु सहोयरु तासु अवर, नरमेण सुहंकर गुणहंपवरु | साहारण लघुबड तासु जाउ, धम्मापुरत्तु अइदिव्वकाउ |
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कवि सिंहके गुरु मुनिपुंगव भट्टारक अमृतचन्द्र थे । ये तप-तेजरूपी दिवाकर और व्रत, नियम तथा शोलके समुद्र थे । अमृतचन्द्रके गुरु माधवचन्द्र थे । इनकी 'मलबारी' उपाधि थी । यह उपाधि उसी व्यक्तिको प्राप्त होती थी, जो दुर्द्धर परीषहों, विविध उपसर्गों और शीत-उष्णादिकी बाधाओंको सहन करता था । कवि देवसेनने भी अपने गुरु विमलदेवको 'मलघारी' सूचित किया है ।
कवि सिंहका व्यक्तिस्वाती व्यक्ति है। वह घार भाषाओंका विद्वान् और आशुकवि था । उसे सरस्वतीका पूर्ण प्रसाद प्राप्त था। वह सत्कवियों में अग्रणी, मान्य और मनस्वी था। उसे हिताहितका पूर्ण विवेक था और समस्त विषयोंका विज्ञ होनेके कारण काव्यरचना में पटु था ।
'पज्जुण्णचरिउ' में सन्धियोंकी पुष्पिकाओ में सिद्ध और सिंह दोनों नाम मिलते हैं । प्रथम आठ सन्धियों की पुष्पिकाओं में सिद्ध और अन्य सन्धियों की पुष्पिकाओं में सिंह नाम मिलता है । अतः यह कल्पना की गई कि सिंह और सिद्ध एक ही व्यक्तिके नाम थे। वह कहीं अपनेको सिंह और कहीं सिद्ध कहता है । दूसरी यह कल्पना भो सम्भव है कि सिंह और सिद्ध नामक दो कवियोंने इस काव्यकी रचना की हो, क्योंकि काव्यके प्रारम्भ में सिंहके माता- पित्ताका नाम और आगे सिद्धके पिताका नाम भिन्न मिलता है। पं० परमानन्दजी शास्त्रीका अनुमान है कि सिद्ध कविने प्रद्युम्नचरितका निर्माण किया था । कालवश यह ग्रन्थ नष्ट हो गया और सिंहने खण्डित रूपसे प्राप्त इस ग्रन्थका पुनरुद्धार किया ।"
प्रो० डॉ० हीरालालजी जैनका भी यही विचार है । ग्रन्थको प्रशस्तिमें कुछ ऐसी पंक्तियां भी प्राप्त होती हैं, जिनसे यह ज्ञात होता है कि कवि सिद्धकी रचना के विनष्ट होने और कर्मवशात् प्राप्त होने की बात कही गई है
१. महाकवि सिंह और प्रद्युम्नचरित, अनेकान्त, वर्ष ८, किरण १०-११, पृ० ३९१ । २. नागपुर युनिवर्सिटी जर्नल, सन् १९४२, पृ० ८२-८३ ।
१६८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा