Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 4
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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कोको नष्ट कर मोक्ष देनेवाली है उस तपस्याका पाखण्डो लोग दुरुपयोग करते हैं और वे मनमाने ढंगसे पन्य और सम्प्रदायोंका प्रवर्तन करते हैं।
कविने अपनी भाषा-शैलीको सशक्त बनाने के लिए अनुरणात्मक शब्दोंका प्रयोग किया है। इन बन्धोके पढ़ते ही शब्दोंका रूपचित्र प्रस्तुत हो जाता है । ___ अठारहवीं सन्धिमें 'दोहयम' छन्दका प्रयोग किया है । तुकप्रेमके कारण दोहेके प्रथम और तृतीय चरण में भी तुक मिलाई गयो है । यहाँ अनुरणात्मक बन्धोंके कुछ उदाहरण प्रस्तुत किये जाते हैं। उम उमिय उमरु वसयागहिर सहाई, दो दो तिकय दिविलु उठ्ठियणिणदाई । भं भंत उच्च सर भेरी घहीराई, घण घायरुण रुणिय जय घट साराई । कडरहिय करडेहिं भुषणेक्कपूराई, धुम धुमिय मद्दलहि वज्जियई तुराई ।६।१०
यह 'सुलोयणाचरित' अपभ्रंशका शास्त्रीय महाकाव्य है। इसमें माधुर्य, प्रसाद बौर ओज़ इन तीनों गुणोंके साथ सभी प्रमुख मलङ्कारोंकी योजना की गयो है। छन्दोंमें, खंडय, जंभेट्टिया, दुवई, उपखंडय, आरणाल, गलिलय, दोहय, वसा, मंजरी आदि छन्द सन्थियो प्रारम्भमें प्रयुक्त हैं। इनके अतिरिक्त पद्धडिया, पादाकुलक, समानिका, मदनावतार, भुजगप्रयात, सग्गिणी, कामिनी, विज्जुमाला, सोमराजी, सरासगी, णिसेणी, वसंतचच्चर, दुतमध्या, मन्दरावली, मदनशेखर आदि छन्द प्रयुक्त हुए हैं।
भावोंकी अभिव्यंजना भी सशक्त रूपमें की गयी है । युद्धके समयको सुलोचनाकी विचारधाराका कवि वर्णन करता हुआ कहता है--
इमं जंपिकणं पउत्तं जयेणं, तुम एह कण्णा मनोहारवण्णा । सुरक्खेह णणं पुरेणेह कणं, तर जोह लक्खा अणेय असंखा ।।
पिय तत्य रम्मोवरे चित्तकम्मे, अरंभीय चिंता सुउ हुल्लयत्ता । णियं सोययंती इणं चितवंती, अहं पावयम्मा अलवा अधम्मा ॥ इस प्रकार चिन्ता, रोष, सहानुभूति, ममता, राग, प्रेम, दया आदिकी सहज अभिव्यंजना की गयी है ।
अमरकीति गणि अपभ्रंश-काव्यके रचयिताओंमें अमरकोत्ति गणिका भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। कविको मुनि, गणि और सूरि उपाधियाँ थीं, जिनसे ज्ञात होता है कि वे गृह१५४ । बीर्थकर महायोर और उनकी नाचार्य परम्परा