Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 4
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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स्वयंभुने अपने जन्मसे किस स्थानको पवित्र किया, यह कहना कठिन है, पर यह अनुमान सहजमें ही लगाया जा सकता है कि वे दाक्षिणात्य थे। उनके परिवार और सम्पकी व्यक्तियोंके नाम दाक्षिणात्य हैं। मारुतदेव, धवलइया, बन्दइया, नाग आइच्चंबा, सामिअंब्बा आदि नाम कर्नाटकी हैं । अप्तएव इनका दाक्षिणात्य होना अबाधित है 1
स्वयंभुदेव पहले धनञ्जयके आश्रित रहे और पश्चात् धवलइयाके । 'पउमचरित' की रचनामें कविने धनञ्जयका और 'रिट्ठणेमिचरित' की रचनामें घवलइयाका प्रत्येक सन्धिमें उल्लेख किया है। स्पिरिना
कवि स्वयंभुदेवने अपने समयके सम्बन्धमें कुछ भी निर्देश नहीं किया है। पर इनके द्वारा स्मत कवि और अन्य कवियों द्वारा इनका उल्लेख किये जानेसे इनके स्थितिकालका अनुमान किया जा सकता है । कवि स्वयंभुदेवने 'पउमचरिउ' और 'रिट्ठणेमिचरिउ'में अपने पूर्ववर्ती कवियों और उनके कुछ ग्रन्थोंका उल्लेख किया है। इससे उनके समयकी पूर्वसोमा निश्चित की जा सकती है । पाँच महाकाव्य, पिंगलका छन्दशास्त्र, भरतका नाट्यशास्त्र, भामह और दण्डीके अलंकारशास्त्र, इन्द्रके व्याकरण, व्यास-बाणका अक्षराडम्बर, श्रोहर्षका निपुणत्व और रविषेणाचार्यको रामकथा उल्लिखित है । इन समस्त उल्लेखोंमें रविषेण और उनका पारित ही अर्वाचीन है। पद्मचरितको रचना वि० सं० ७३४ में हुई है। अतएव स्वयंभुके समयको पूर्वावधि वि० सं० ७३४ के बाद है।
स्वयंभुका उल्लेख महाकवि पुष्पदन्सने अपने पुराणमें किया है और महापुराणको रचना वि० सं० १०१६ में सम्पन्न हुई है। अतएव स्वयंभुके समयकी उत्तरसीमा वि० सं० १०१६ है । इस प्रकार स्वयंभुदेव वि० सं० ७३४-१०१६ वि० सं० के मध्यवर्ती हैं। श्री प्रेमीजीने निष्कर्ष निकालते हुए लिखा है'स्वयंभुदेव हरिवंशपुराण कर्ता जिनसेनसे कुछ पहले ही हुए होंगे, क्योंकि जिस तरह उन्होंने 'पउमचरिउ' में रविषेणका उल्लेख किया है, उसी तरह 'रिट्ठणेमिचरिउ' में हरिवंशके कर्ता जिनसेनका भी उल्लेख अवश्य किया होता यदि वे उनसे पहले हो गये होते तो। इसी तरह आदिपुराण, उत्तरपुराणके कर्ता जिनसेन, गुणभद्र भी स्वयंभुदेव द्वारा स्मरण किये जाने चाहिये थे। यह बात नहीं जंचती कि बाण, श्रीहर्ष, आदि अजैन कवियोंकी तो चर्चा करते और जिनसेन आदिको छोड़ देते। इससे यही अनुमान होता है कि स्वयंभुदेव दोनों जिनसेनोंसे कुछ पहले हो चुके होंगे । हरिवंशकी रचना वि० सं० ८४० में
आचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : ९७