Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 4
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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देशीगण, कुन्दकुन्दान्वय
श्रीकीर्ति
श्रुतकीति
सहस्रकीति
वीरचन्द्र
श्रीचन्द्र सहस्रकीतिके पांच शिष्य थे-देवचन्द्र, वासवमुनि, उदयकोति, शुभचन्द्र और वीरचन्द्र। इन पांचों शिष्योंमेंसे वीरचन्द्र अन्तिम शिष्य थे। इन्हीं वीरचन्द्र के शिष्य श्रीचन्द्र हैं।
श्रीचन्द्रने कथाकोशकी रचनाके प्रेरकोंका वंशपरिचय विस्तारपूर्वक दिया है । बताया है कि सौराष्ट्र देशके अपाहिल्लपुर (पाटण) नामक नगरमें प्राग्वाटवंशीय सज्जन नामके एक व्यक्ति हुए, जो मूलराल नरेशके धर्मस्थानके गोष्ठीकार अर्थात् धार्मिक कथावार्ता सुनानेवाले थे । इनके पुत्र कृष्ण हुए, जिनकी भगिनीका नाम जयन्ती और पत्नीका नाम राणू था। उनके तीन पुत्र हुएबीजा, साहनपाल और साढदेव तथा चार कन्याएँ-श्री, शृंगारदेवी, सुन्दू और सोखू । इनमें सुन्दू या सुन्दुका विशेषरूपसे जैनधर्मके उद्धार और प्रचारमें रुचि रखती थी। कृष्णकी इस सन्तानने अपने कर्मक्षयसे हेतु कथाकोशकी व्याख्या कराई। आगे इसो प्रशस्तिमें बताया गया है कि कर्त्ताने भव्योंकी प्रार्थनासे पूर्व आचार्यकी कृतिको अवगत कर इस सुन्दर कथाकोशको रचना की।
इस कथनसे यह अनुमान होता है कि इस विषयपर पूर्वाचार्यको कोई रचना श्रीचन्द्रमुनिके सम्मुख थी। प्रथम उन्होंने उसी रचनाका व्याख्यान श्रावकोंको सुनाया होगा, जो उन्हें बहुत रोचक प्रतीत हुआ। इसीसे उन्होंने उनसे प्रार्थना की कि आप स्वतन्त्ररूपसे कथाकोशकी रचना कीजिये । फलस्वरूप प्रस्तुत ग्रन्थका प्रणयन किया गया है। प्रशस्तिमें ग्रंथकारके व्याख्यातृत्व और कवित्व आदि गुणोंका विशेषरूपसे निर्देश किया गया है । अतएव यह स्पष्ट है कि सौराष्ट्र देशके अणहिल्लपुरमें कृष्ण श्रावक और उनके परिवारकी प्रेरणासे कथाकोश ग्रन्धकी रचना हुई है।
'दसणकहरयणकरडु' ग्रंथको सन्धियोंके पुष्पिकावाक्योंमें 'पं० श्रीचन्द्र कृत' निर्देश मिलता है । यह निर्देश सोलहबों सन्धि तक ही पाया जाता है । १३२ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा