Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 4
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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सेनान्वये सकलसत्वसमपित्तश्री: श्रीमानजायस कविर्मुनिसेननामा । आन्वीक्षिकी सकलशास्त्रमयी च विद्या यस्यास चादपदवी न दवीयसी स्थात् ॥ १॥ तस्मादभूदखिलवाङ्मयपारदश्वा विश्वासपात्रमवनीतलनायकानाम् । श्रीश्रीधरः सकलसत्कविगुम्फितत्त्वपीयूषपानकृत्तनिर्जरभारतीकः ॥२ ।। तस्यात्तिशायिनि कदेः पथि जागरूकधीलोचनस्य गुरुशासनलोचनस्य । नानाकवीन्द्ररचितानभिधानकोशानाकृष्य लोचनमिवायमदीपि कोशः ॥ ३ ॥ साहित्यकर्मकवितागमजागरूकैरालोकित: पदविदां च पुरे निवासी। वर्मन्यधीत्य मिलित: प्रतिभान्वितानां
चेदस्ति दुर्जनवचो रहितं तदानीम् ॥ १ ॥ अर्थात् कोशकी प्रशस्तिके अनुसार इनके गुरुका नाम मुनिसेन था, ये सेनसंघके आचार्य थे। इन्हें कवि और नैयायिक कहा गया है। श्रीधरसेन नाना शास्त्रोंके पारगामी और बड़े-बड़े राजाओं द्वारा मान्य थे । सुन्दरगणिने अपने धातुरत्नाकरमें विश्वलोचनकोशके उद्धरण दिये हैं और धातुरत्नाकरका रचनाकाल ई० १६२४ है, अत: श्रीधरसेनका समय ई० १६२४ के पहले अवश्य है। विक्रमोर्वशीय पर रंगनाथने ई० १६५६ में टोका लिखी है । इस टीकामें विश्वलोचनकोशका उल्लेख किया गया है । अतः यह सत्य है कि विश्वलोचनकी रचना १६वीं शताब्दीके पूर्व हुई होगी। शैलीकी दष्टिसे विश्वलोचनकोश पर हैम, विश्वप्रकाश और मेदिनी इन तीनों कोशोंका प्रभाव स्पष्ट लक्षित होता है। विश्वप्रकाशका रचनाकाल ई० ११०५, मेदिनीका समय इसके कुछ वर्ष पश्चात् अर्थात् १२वीं शतीका उत्तराद्धं और हेमका १२वीं शतीका उत्तराद्ध है । अतः विश्वलोचनकोशका समय १३वीं शतीका उत्तराचं या १४वीं का पूर्वार्ध मानना उचित होगा।
इस कोशमें २४५३ श्लोक हैं। स्वरवर्ण और ककार आदिके वर्णक्रमसे शब्दोंका संकलन किया गया है । इस कोशकी विशेषताके संबंधों इसके संपादक श्रीनन्दलाल शर्माने लिखा है "संस्कृतमें कई नानार्थ कोश हैं, परन्तु जहाँ तक
आचार्यतुरूप कान्यकार एवं लेखक : ६१