Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 4
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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सुन्दविधान काव्यग्रन्थ राजा वीरमदेवके राज्यकालमें लिखा है। जब कविका काव्य पूर्ण हो गया, तो सन्तोषनामके जयसवालने उसको बहुत प्रशंसा की और विजयसिंह जयसवालके पुत्र पृथ्वीराजने उक्त ग्रन्थको अनुमोदना की।
कुशराज जयसवालकुलके भूषण थे और ये वीरमदेवके मंत्री थे। इन्हींको प्रेरणासे यशोधरचरित लिखा गया। कुशराज राज्यकार्यम बड़े ही निपुण थे। इके पिताका नाम जैनपाल और माताका नाम लौणादेवी था। पितामहका नाम लण्ण और पितामहीका नाम उदितादेवी था। आपके पांच और भाई थे, जिनमें चार बड़े और एक सबसे छोटा था । हंसराज, सैराज, रैराज, भवराज और क्षेमराज । क्षेमराज सबसे बड़ा और भवराज सबसे छोटा था। कुशराज राजनीतिज्ञ होने के साथ धर्मात्मा भी था। इसने ग्वालियरमें चन्द्रप्रभजिनका एक विशाल जिनमंदिर बनवाया था और उसकी प्रतिष्ठान करवायी थी।
कुशराजको तीन पत्नियां थीं-रल्हो, लक्षणश्रो और कोशोरा । रल्हो गृहकार्यमें कुशल और दानशीला थी। वह नित्य जिनपूजा किया करती थी। इससे कल्याणसिंह नामका पुत्र उत्पन्न हुआ था, जो बड़ा ही रूपवान्, दानी और श्रद्धालु था । शेष दोनों पत्नियाँ भी-धर्मात्मा और सुशीला थीं। कुशराज ने श्रुतभक्तिवश यशोधरचरितकी रचना कराई ।
पद्मनाभ मेधावी कवि होने के साथ समाजसेवी विद्वान् थे। जैन भट्टारकों और थावकोंके सम्पर्कसे उनका चरित्र अत्यन्त उज्जवल और श्रावकोचित था। ग्रन्थप्रशस्तिसे पद्मनाभके सम्बन्धमें विशेष जानकारी प्राप्त नहीं होती है, पद्मनाभने अपने प्रेरक कुशराजके वंशका विस्तृत परिचय दिया है। स्थितिकाल
पद्मनाभने अपना यह काव्यग्रन्थ वीरमदेवके राज्यकालमें लिखा है। वीरमदेव बड़ा ही प्रतापी राजा तोमर-वंशका भूषण था | लोकमें उसका निर्मल यश व्याप्त था। दान, मान और विवेकमें उस समय उसकी कोई समता करनेवाला नहीं था। यह विद्वानोंके लिए विशेषरूपसे आनन्दायक था । यह ग्वालियरका शासक था। वीरमदेवके पिता उद्धरणदेव थे, जो राजनीति में दक्ष और सर्वगुणसम्पन्न थे। ई० सन् १४०० या उसके आस-पास हो राज्यसत्ता वीरमदेवके हाथमें आयो । ई० सन् १४०५में मल्लू एकबालखाने ग्वालियरपर आक्रमण किया था। पर उस समय उसे निराश होकर ही लौटना पड़ा। दूसरी बार भी उसने आक्रमण किया; पर वीरमदेवने उससे सन्धि कर ली। आचार्य अमृतचन्द्रको 'तत्त्वदीपिका'की लेखकप्रशस्तिसे वीरमदेवका राज्यकाल
भाचार्यतुल्य काव्यकार एवं लेखक : ५५