________________
धारण कर उनके समक्ष मध्यम स्वर में बोलते थे। कई प्रभु को प्रसन्न करने के लिए कोकिला का रूप धारण कर, पास के वृक्षों की डालियों पर बैठ पंचम स्वर में राग आलापते थे। कई तुरंग (घोड़े) का रूप धरकर, अपने आत्मा क पवित्र करने की इच्छा से, धैवत ध्वनि से हेषारव ( हिनहिनाहट) करते हुए प्रभु के पास आते थे। कई हाथी का स्वरूप धर निषाद स्वर में बोलते हुए अधोमुख होकर अपनी सूंडों से भगवान के चरणों को स्पर्श करते थे। कई बैल का रूप धारण कर अपने सींगों से तट प्रदेश को ताड़न करते और ऋषभ स्वर में बोलते हुए प्रभु की दृष्टि को विनोद कराते थे। कई अंजनाचल के समान भैंसो का रूपधर, परस्पर युद्ध कर प्रभु को युद्धक्रीड़ा बताते थे। कई प्रभु के विनोदार्थ मल्लका रूप धर, भुजाएँ ठोक एक दूसरे को अक्षवाट (अखाडे) में बुलाते थे। इस तरह योगी जिस तरह परमात्मा की उपासना करते हैं, उसी तरह देवकुमार भी विविध विनोदों से निरंतर प्रभु की उपासना करते थे।
अंगूठे चूसने की अवस्था बीतने पर अन्य गृहवासी अर्हंत पकाया हुआ भोजन करते हैं, परंतु आदिनाथ भगवान तो देवता उत्तर कुरुक्षेत्र से कल्पवृक्षों के फल लाते थे उन्हें भक्षण करते थे और क्षीर समुद्र का जल पीते थे।
यौवनकाल और गृहस्थ जीवन :
बालपन बीतने पर भगवान ने युवावस्था में प्रवेश किया। तब भी प्रभु के दोनों चरणों के मध्य भाग समान, मृदु, रक्त, उष्ण, कंप रहित, स्वेदवर्जित और समान तलुए वाले थे। उनमें चक्र, माला, अंकुश, शंख, ध्वजा, कुंभ तथा स्वस्तिक के चिह्न थे। उनके अंगूठे में श्री वत्स था । अंगुलियाँ छिद्ररहित और सीधी थी। अंगुली - तल में नंदावर्त के चिह्न थे। अंगुलियों के प्रत्येक पर्व में जौ थे। इसी भाँति दोनों हाथ भी बहुत सुंदर, नवीन आम्रपल्लव के समान हथेली वाले, कठोर, स्वेदरहित, छिद्रवर्जित और गरम थे। हाथ में दंड, चक्र, धनुष, मत्स्य, श्रीवत्स, वज्र, अंकुश, ध्वज, कमल, चामर, छत्र, शंख, कुंभ, समुद्र, मंदर, मकर, ऋषभ, सिंह, अश्व, रथ, स्वस्तिक, दिग्गज, प्रासाद, तोरण और द्वीप आदि के चिह्न थे। उनकी अंगुलियाँ और अंगूठे : श्री तीर्थंकर चरित्र : 17 :