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महीने की वदि आठम के दिन आधीरात में मरुदेवा माता ने युगल धर्मी पुत्र को उत्पन्न किया। उपपात शय्या में जन्मे हुए देवताओं की तरह भगवान सुशोभित होने लगे। तीन लोक में, अंधकार को नाश करने वाले बिजली के प्रकाश की तरह, उद्योत हुआ। आकाश में दुंदुभि बाजे बजने लगे। अन्तर्मुहूर्त नारकी जीवों को भी उस समय अभूत पूर्व आनंद हुआ। शीतलमंद पवन ने सेवकों की तरह पृथ्वी की रज को साफ करना प्रारंभ किया। मेघ सुगंधित जल की वर्षा करने लगे। _ छप्पन दिककुमारियाँ मरुदेवा माता की सेवा में आयी' सौधर्मेन्द्र व दूसरे तिरसठ इंद्रों ने मिलकर प्रभु का जन्म-कल्याणक किया। ____माता मरुदेवा सवेरे जागृत हुई। रात में स्वप्न आया हो इस तरह उन्होंने इंद्रादि देवों के आगमन की सारी बातें नाभिराजा से कहीं। भगवान के उरु में (जांघ में) ऋषभ का चिह्न था और माता मरुदेवा ने भी स्वप्न में सबसे पहले ऋषभ को देखा था, इसलिए भगवान का नाम 'ऋषभ' रखा. गया। भगवान के साथ जन्मी हुई कन्या का नाम सुमंगला (सुनंदा) रखा गया। भगवान इंद्र के संक्रमण किये हुए अंगूठे के अमृत का पान करते थे। पांच धाएँ-जिन्हें इंद्र ने नियत की थी। हर समय भगवान के पास उपस्थित रहती थी।
भगवान की आयु जब एक वरस की हो गयी, तब सौधर्मेन्द्र वंश स्थापन करने के लिए आया। सेवक को खाली हाथ स्वामी के दर्शन करने के लिए नहीं जाना चाहिए, इस खयाल से इंद्र अपने हाथ में इक्षुयष्टि (गन्ना) लेता गया। वह पहुंचा उस समय भगवान नाभि राजा की गोद में बैठे हुए थे। प्रभु ने अवधिज्ञान द्वारा इंद्र के आने का कारण जाना। उन्होंने इक्षु लेने के लिए हाथ बढ़ाया। इंद्र ने प्रणाम करके इक्षुयष्टि प्रभु को अर्पण की। प्रभु ने इक्षु ग्रहण किया। इसलिए उनके वंश का नाम 'इक्ष्वाकु' स्थापन कर इंद्र स्वर्ग में गया। 1. देखो, तीर्थंकर चरित-भूमिका पृ. ३१० पर। 2. तीर्थंकरों को जन्म से ही अवधिज्ञान सहित तीन ज्ञान होते हैं।
: श्री तीर्थंकर चरित्र : 15 :