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कारण प्रेम का संचार हुआ। उसने दोनों को धीरे से शंड से उठाकर अपनी पीठ पर बिठा लिया। अन्यान्य युगलियों ने, सागरचंद्र को इस हालत में देखकर आश्चर्य किया। उसको विशेष शक्तिसंपन्न समझा और अपना न्यायकर्ता बना लिया। वह विमल-श्वेत, वाहन-सवारी पर बैठा हुआ था, इसलिए लोगों ने उसका नाम 'विमलवाहन' रखा।
क्योंकि कल्पवृक्ष उस समय बहुत ही थोड़ा देने लगे थे, इसलिए युगलियों के आपस में झगड़े होने लग गये थे। इन झगड़ों को मिटाना ही विमलवाहन का सबसे प्रथम काम था। उसने सोचा-विचारकर सबको आपस में कल्पवृक्ष बांट दिये। और 'हाकार' का दंड विधान किया। जो कोई दूसरे के कल्पवृक्ष पर हाथ डालता था, वह विमलवाहन के सामने लाया जाता था। विमलवाहन उसे कहता - हा! तूं ने यह क्या किया? इस कथन को वह मौत से भी ज्यादा दंड समझता था और फिर कभी अपराध नहीं करता था।
प्रथम कुलकर विमलवाहन के युगल संतान उत्पन्न हुई। पुरुष का नाम चक्षुष्मान था और स्त्री का चंद्रकांता। विमलवाहन के बाद चक्षुष्मान कुलकर हुआ। वह भी अपने पिता ही की मांति 'हाकार' दंड विधान से काम लेता था। यह दूसरा कुलकर था। जोड़े का शरीर आठ सौ धनुष का और आयु असंख्य पूर्व की थी।
इनके जो जोड़ा उत्पन्न हुआ उसका नाम यशस्वी और सुरूपा थे। आयु दूसरे कुलकर के जोड़े से कुछ कम और शरीर साढ़े सात सौ धनुष का था। पिता की मृत्यु के बाद यशस्वी तीसरा कुलकर नियत हुआ। उसके समय में 'हाकार' दंडविधान से कार्य न चला। तब उसने 'माकार' का दंडविधान और किया। अल्प अपराधवाले को 'हाकार' का, विशेष अपराधवाले को 'माकार' का और गुरुतर अपराध वाले को दोनों का दंड देने लगा।
सुरूपा की कूख से अभिचंद्र और प्रतिरूपा का जोड़ा उत्पन्न हुआ। वह अपने मातापिता से कुछ अल्प आयुवाला और साढ़े छ: सौ धनुष शरीरवाला था। यशस्वी के बाद अमिचंद्र चौथा कुलकर नियत हुआ। वह अपने पिता की 'हाकार' और 'माकार' दोनों नीतियों से काम लेता रहा।
: श्री तीर्थंकर चरित्र : 13 :