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बारहवा भव :
मरकर अनुत्तर विमान में तेतीस सागरोपम की आयुवाले देवता हुए। तेरहवाँ भव :
आदिनाथ नामरूप। पूर्वज :
जब मनुष्य का अधःपात होने लगता है तब वह परमुखापेक्षी हो • जाता है। तीसरे आरे के अंत में कल्पवृक्षों का दान कम हो जाता है। युगलियों में भी कषायों का थोड़ा उदय हो जाता है। उनके कारण वे कुछ अयोग्य कार्य भी करने लग जाते हैं। उन अयोग्य कार्यों को रोकने के लिए किसी सशक्त मनुष्य की आवश्यकता होती है। युगलिये अपने में से किसी एक मनुष्य को चुन लेते हैं। वह पुरुष कुलकर कहलाता है। वही युगलियों को बुरे कामों से रोकने के लिए दंड भी नियत करता है।
तीसरे आरे के अंत में एक युगलियों का जोड़ा उत्पन्न हुआ। पुरुष का नाम सागरचंद्र था और स्त्री का प्रियदर्शना। उनका शरीर नौ सौ धनुष का था। उनकी आयु १/१० पल्योपम की थी। उनका संहनन 'वज्र ऋषभनाराच और संस्थान 'समचतुरस्त्र' था। इनके पूर्व भव में एक मित्र था। वह कपट करने से मरकर उसी स्थान पर चार दांतवाला हाथी हुआ। एक दिन उसने फिरते हुए सागरचंद्र और प्रियदर्शना को देखा। उसके हृदय में पूर्व स्नेह के
और कायशुद्धि के साथ तपस्वियों को दान देना, १६. वैयावच्चपद आचार्यादि दस (१ जिनेश्वर २ सूरि ३ वाचक ४ मुनि ५ बालमुनि ६. स्थवरमुनि ७ ग्लानमुनि ८ तपस्वीमुनि ९ चैत्य १० श्रमणसंघ) की अन्न, जल और आसन से सेवा करना, १७. संयमपद - चतुर्विध संघ के सारे विघ्न मिटाकर मन में समाधि उत्पन्न करना, १८. अभिनवज्ञानपद - अपूर्व ऐसे सूत्र, अर्थ तथा दोनों का यत्न पूर्वक ग्रहण करना, १९. श्रुतपद - श्रद्धा से उद्भासन (बहुमान पूर्वक वृद्धि-प्रकाशन) करके तथा अवर्णवाद का नाश करके श्रुतज्ञान. की भक्ति करना। २०. तीर्थपद - विद्या, निमित्त, कविता, वाद और धर्म-कथा आदि से शासन की प्रभावना करना।
: श्री आदिनाथ चरित्र : 12 :