Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 5
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
तत्वार्थ लोकवार्त
वर्त्त रही योग्यता तो भव्यत्वभाव है । और उससे विपरीत जो रत्नत्रय रूप करके परिणाम नहीं हो सकने की योग्यता अभव्यत्व है । ये दोनों भाव पारिणामिक जान लेने चाहिये । क्योंकि उन भव्यत्व, | अभय, दोनों को भी कर्म के उदय, उपशम, आशिकी नहीं अपेक्षा रखनेवालेपन की सिद्धि हो जाने से भिन्न दो प्रकार जाति वाले जीवोंमें उन दो की असंकररूपसे सर्वदा सत्ता पाई जाती है । अर्थात्युक्तानन्त प्रमाण अभव्य जीवोंकी राशिमें सर्वदा अभव्यत्व परिणाम होता रहता है, तथा मध्यम अनंतान्त प्रमाण अक्षय भव्य राशिमें बहुभाग भव्यों के सिद्ध अवस्था होनेतक भव्यत्वभाव बना रहता
। मोक्ष होनेपर भव्यत्वभाव बिगड जाता है। जैसे कि मृत्तिकामें घट बन जानेपर घट परिणाम योग्यता विनश जाती है । हां दूरभव्योंमें भव्यता सर्वदा बनी रहती है, भव्यपना भविष्यकालक अपेक्षासे है । कार्यं निष्पत्ति हो जानेपर तो भव्यता के स्थानको भूतता घेर लेती है। सुवर्णपाषाण और अन्धपाषाण के समान अनादि काल से चले आ रहे केवलभव्यत्व या अभव्यत्वरूप परिणामोंके निमित्तसे भव्यपना और अभव्यपना निर्णीत कर दिया जाता है ।
I
४२
कुतः पुनरनादिः परिणामः कर्मोदयाद्युपाधिनिरपेक्षो जीवस्य सिद्ध इत्यारेकायामाह ।
कर्मो के उदय, उपशम, आदि झगडों की नहीं अपेक्षा रखता हुआ जीवका परिणाम भला अनादि है यह किस प्रमाणसे सिद्ध किया जाय ? बताओ, इस प्रकार शिष्यमें संशयका उत्थान हो श्री विद्यानन्द आचार्य समाधानको स्पष्ट कहते हैं ।
अनादिपरिणामोस्ति तत्रोपाधिपराङ्मुखः । सोपाधिपरिणामानामन्यथा तत्त्वहानितः ॥ १॥
उस जीवमें कर्म, नोकर्म, आदिक उपाधियोंसे सर्वथा पराङ्मुख हो रहा कोई अनादि कालीन परिणाम अवश्य है, क्योंकि पश्चात् उपाधिसहित परिणामोंकी अन्यथा यानी मूल पारिणामिक वस्तुको माने बिना उस उपाधिसहित परिणामपनकी हानि हो जावेगी । मूल है तो शाखा चल सकती है “मूलं नास्ति कुतः शाखा " मूलमें कपडा है तो उसपर कोई भी रंग रंगा जा सकता हैं, आकाशको या आकाशके फूलको कोई रंग ( रञ्जितकर ) नहीं सकता है । इस अन्वय व्यतिरेक वाले हेतुसे जीवका निजगांठका डील पारिणामिकभाव है यह साध दिया गया है ।
I
नहि स्फटिकादेरसति स्वाभाविकपरिणामे स्वच्छत्वे जपाकुसुमाद्युपाधिसान्निध्यभावानुजन्मा रक्तत्वादिपरिणामः प्रतीयते तदात्मनोप्यौपाधिकाः परिणामा औपशमिकादयो नानादि -- परिणाममंतरेणोपपर्यंते शशविषाणादेरपि स्वाभाविकपरिणामरहितस्यैौपाधिकपरिणाममसंगात् । ततोस्ति जीवस्यानादिनिरुपाधिकः परिणामः कर्मोपशमादिपरिणामवत् । तथा सति ।
له