Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 2
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामाणः
मोक्षका कारण मानोगे ? या तत्त्वार्थश्रद्धानसे सहित होते हुए अहंत, साधु, तीर्थ, आदिके भक्तिसहित देखनेको मोक्षका कारण मानते हो? बताओ। यदि तत्त्वार्थश्रद्धानसे रहित कोरे देखनेको मोक्षमार्ग कहोगे तब तो अतिप्रसंग हो जावेगा अर्थात् अभव्योंके भी मोक्षमार्गकी प्राप्ति हो जावेगी। वे भी प्रतिमाजी, तीर्थ, आचार्य, मुनि आदिका दर्शन करते हैं । कतिपय स्तोत्रोंमें जिनेंद्रदेवके दर्शनका अनेक बार होना बतलाया है। " आकर्णितोपि महितोपि निरीक्षितोपि " इत्यादि । किंतु भावशून्य होनेके कारण सम्यग्दर्शनका बीज नहीं हो सका है। द्रव्यलिङ्गी, अभव्य समवसरणके श्रीमण्डपमें साक्षात् अर्हत देवका दर्शन नहीं कर पाते हैं। किंतु अन्य स्थलोंपर प्रतिमाजी, मुनि, तीर्थ आदिका दर्शन करते हैं। यदि दूसरे पक्षके अनुसार उस तत्त्वार्थश्रद्धानसे सहित होरहे चाक्षुष प्रत्यक्षको उस मोक्षका कारण मानोगे तो वह तत्त्वार्थ-श्रद्धान ही मोक्षका कारण सिद्ध हुआ । उस तीर्थ आदिके दर्शन विना भी यदि तत्त्वार्थश्रद्धान. विद्यमान है तो उसे मोक्षमार्गपना होनेमें कोई विरोध नहीं है । तत्त्वार्थ-श्रद्धान रूप कारणके साथ मोक्षरूप कार्यका अन्वय व्यतिरेकसे कार्यकारणभाव है और चाक्षुषप्रत्यक्षके साथ मोक्षमार्गपनेका कार्यकारणभाव करनेमें अन्वयव्यभिचार, व्यतिरेकव्यभिचार दोनों दोष आते हैं। भले ही पूज्य पंचपरमेष्ठीका ही नेत्रोंसे दर्शन क्यों न हो।
अर्थग्रहणतोऽनर्थश्रद्धानं विनिवारितम् । कल्पितार्थव्यवच्छेदोऽर्थस्य तत्त्वविशेषणात् ॥३॥ लक्षणस्य ततो नातिव्याप्तिग्मोहवर्जितम् ॥ पुंरूपं तदिति ध्वस्ता तस्याव्याप्तिरपि स्फुटम् ॥ ४ ॥
सम्यग्दर्शनके लक्षण सूत्रमें अर्थपदका ग्रहण करनेसे अवस्तुभूत अनर्थोके श्रद्धानको सम्यग्दर्शन बननेका विशेषरूप करके निवारण कर दिया गया है । और अर्थका विशेषण तत्त्व लगा देनेसे कल्पित अर्थोके श्रद्धानको सम्यग्दर्शन हो जानेकी व्यावृत्ति कर दी गयी है । यद्यपि काव्यों या प्रशंसावाक्योंमें स्वरूप कथन करनेवाले भी विशेषण देदिये जाते हैं। जैसे कि वह राजा दानी है, कुलीन है, विद्वान है । इन पदोंसे भले ही कुछ साधारण पुरुषोंसे राजाकी व्यावृत्ति हो जावें । किन्तु वे अमुक राजाके असाधारण धर्म नहीं है । अन्य राजाओं और सेठोंमें भी पाये जाते हैं । किन्तु लक्षणको कहनेवाले वाक्यमें जो विशेषण दिये जाते हैं वे व्यर्थ नहीं होते हैं। अलक्ष्योंसे लक्ष्यकी व्यावृत्ति करदेना उन विशेषणोंके देनेका फल है । तिस कारण सम्यग्दर्शनके लक्षणकोः अतिव्याप्ति दोष नहीं लगा । वह सम्यग्दर्शन गुण तो दर्शनमोहनीय कर्मके उदयसे रहित हुए आत्माका स्वाभाविक स्वरूप है । इस कारण तीनों प्रकारके सम्यग्दर्शनोंमें लक्षणके चले जानेसे उस. लक्षणका अव्याप्ति दोष भी स्पष्टरूपसे नष्ट हो जाता है ।