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तत्त्वभावना
. भावार्थ---यहां पर भी प्रतिक्रमण का भाव झलकाया गया है । जहाँ तक कषायों का अभाव न हो अर्थात् वीतरागी न हो जावे वहां तक बाषायों का जोर कभी कम व कभी अधिक होता रहता है। जिस समय परिणाम में कषाय मंद होती है तब ही भावों में शांति, विवेक, बुद्धिमानी झलकती है। तब वह मानव मुनि हो या श्वावक अपने धारण किये हुए चारित्र के नियमों में बहुंत बड़ा सावधान रहता है और मन, वचन, काचसे कोई दोष नहीं लगने देता है। परन्तु जिस समय किसी निमित्तवश परिजाम में लोभ का कुछ जोर हो जावे या क्रोध का वेग उठ आवे या मानभाव मे अन्धेरा हो जावे या आलस्य हो जावे या द्वेष. बुद्धि पैदा हो जावे या कामभाव से चावला हो जावे उस समय मन में अशांति, अज्ञान और मढ़ता कम व अधिक घर कर लेती है । सब उसी मुनि व श्रावक से चारित्र के पालन मे बहुत से दोष लग जाते हैं। कदाचित काय व वचन सम्बंधी न हों व बहुत ही अल्प हों परन्तु मानसिक दोष तो हो ही जाते हैं। इसीलिए प्रतिक्रमण किया जाता है। जिसमें यह भावना भाई जाती है कि वे दोष दूर हों व उनसे लगा हुआ पाप क्षय हो जावे या कम हो जावे । श्री जिनेन्द्र भगवान के गुण परम पवित्र हैं। इसलिए उनके निर्मल मुणों के स्मरण से परिणाम निर्मल हो जाते हैं और पवित्र भावों में यह शक्ति है कि पापों का नाश कर डालें। जैसे स्थूल शरीर में बहुत सावधानी से हवा, पानी व भोजन लेते हुए व समय में भोजनपान, नीहार, विहार व निद्रा लेते हए कभी भी किसी न किसी बात में भूल हो जाती है। अनिष्ट भोजन जबान के स्वादव खा लिया जाता, रात्रिको देर तक जागकर निद्रा कम ली जाती, व काम-काज में उलझ जानेसे बेसमय भोजन किया जाता, ब अधिक स्त्री-प्रसंग किया जाता इत्यादि अपनी