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तत्त्वभावना
जायगो तब हमारे लिए निश्चय से एक आत्मतत्व हो देव, मुरु या शास्त्र हो जाएगा। इस प्रकार साधक को व्यवहार धर्म की भाषना निश्चयधर्म के लाभ के लिए करते रहना चाहिए।
मूल इलोकानुसार गीता छन्द हे देव ! श्री जिन भक्ति करते अन च अभ्यासते । निन्दा न करते अन्यजन की साधु गुण सुप्रकाशते ।। चारित्र चितमें चाहते क्रोधादि शत्र निवारते। बीते दिवस मेरे सभी अध्यात्म अनुभव धारते ॥शा
उत्थानिका-आगे कहते हैं कि मेरे चरित्र में जो दोष लगे हों वे व्यर्थ हो
आलस्याकुलितेन मुद्धमनसा सन्मार्गनिर्णाशिना। लोमक्रोधमवप्रमाश्मदनद्वेषाविविग्यात्मना ।। यद्देवाचरितं विरुद्धमधिया चारित्रशुद्धमेया। मिथ्या दुष्कृतमस्तु भो जिनपते ! तत्त्वत्प्रसादेन मे ॥३॥ अन्वयार्थ - (देव) हे भगबन (आलस्याकुलतेन) आलस्यसे भरकर व (मटमनसा) मन में विवेक को छोड़कर मूर्खता धार के (सन्मार्गनिर्णाशिना) मोक्षमार्ग को विराधना करते हुए (लोभक्रोधमदप्रमादमदनद्वेषादिदिग्धात्मना) व अपने आरमाको क्रोध, लोभ, मान, असावधानो, कामभाव, देष आदि से लिप्त करके (मया) मुझ (अधिवा) निर्बुद्धि के द्वारा (यत्) जो कुछ (चारित्रशुद्धः) चारित्रको शुद्धतासे (विरुद्धम् } विपरीत (आच. रितं) आचरण किया गया हो (भो जिनपते !) हे जिनेन्द्र भगबान ! (स्वत्प्रसादेन) आपके प्रसाद से (तत्) वह (मे) मेरा (दुष्कृतम् ) दुष्कृत या पाप या दोष (मिथ्या) नाश (अस्तु) हो ।