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ताओ उपनिषद भाग ४
अभी वासना की शक्ति बाहर बहती है, क्योंकि रस आपका बाहर है। और जब रस आपका भीतर होता है तो यही शक्ति भीतर बहने लगती है। जो वासना अभी काम बन जाती है वही वासना राम भी बन जाती है। सिर्फ अंतर है उसके बाहर और भीतर बहने का। अभी मैं दूसरे में उत्सुक हूं तो मेरी वासना की शक्ति उस तरफ बहती है। और जब मैं अपने में उत्सुक हूं और स्वयं की खोज में लीन हूं तो वही शक्ति मेरी तरफ बहने लगती है। लेकिन वह बहेगी तब जब मैत्री का एक द्वार खुला हो; वह बहेगी तब जब मैत्री की एक रेखा खिंची हो जिससे वह भीतर आ जाए। दुश्मन की तरह वह भीतर नहीं आ सकती है। दुश्मन की तरह उसके लिए कोई निमंत्रण नहीं है।
अगर कोई व्यक्ति अपनी प्रकृति की सारी शक्तियों को सहज आनंद से स्वीकार कर ले, परमात्मा की देन मान कर अहोभाव से स्वीकार कर ले, तो वह पाएगा कि वासनाओं को जीतने की जरूरत नहीं है। जीतने की बात ही फिजूल है। अपनी ही वासनाओं को खुद जीतने का क्या सवाल है? मेरी ही वासनाएं हैं। मैं उन्हें बाहर की तरफ ले जाता हूं; वे बाहर जाती हैं। मैं भीतर में उत्सुक हो गया; वे भीतर आनी शुरू हो जाती हैं। और जब अपनी ही वासनाओं की ऊर्जा भीतर की तरफ बहनी शुरू होती है और जब कामना आत्म-कामना बनती है, तब जिनको हमने आप्तकाम कहा है, उस अवस्था की उपलब्धि होती है। आप्तकाम का अर्थ है : जिसकी सारी कामवासना अंतर्मुखी हो गई, जो अपनी कामवासना का स्वयं ही लक्ष्य हो गया, और जिसकी सारी नदियां अब किसी और सागर की तरफ नहीं जाती, अपने भीतर के सागर में ही गिर जाती हैं।
'जो संतुष्ट है वह धनवान है; जो दृढ़मति है वह संकल्पवान है। जो अपने केंद्र से जुड़ा है वह मृत्युंजय है; और जो मर कर जीवित है वह चिर-जीवन को उपलब्ध होता है।'
जो संतुष्ट है वह धनवान है। इस वचन को हम बहुत सुनते हैं; लोकोक्ति बन गया। लेकिन हम समझते हैं, इसमें शक है। लोग समझाते हैं, वे भी समझते हैं, इसमें शक है। संतोष बड़ा धन है और संतुष्ट व्यक्ति सदा सुखी है, ऐसा हम सुनते हैं। और कोई दुखी होता है तो उसको भी हम कहते हैं : संतोष रखो; क्योंकि संतोष से बड़ा सुख मिलता है। ध्यान रहे, संतोष से सुख मिलता है, यह बात गलत है। संतुष्ट व्यक्ति सुखी होता है, यह बात सही है; . लेकिन संतोष से सुख मिलता है, यह बात गलत है।
इस फर्क को आप समझ लेंगे तो इस सूत्र का रहस्य खयाल में आ जाएगा।
संतोष से सुख मिलता है, ऐसा हम समझाते हैं। कोई दुखी है, परेशान है; हम कहते हैं, संतुष्ट रहो, संतोष से .. सुख मिलेगा; संतोष से बड़ा धन नहीं है। आप कह क्या रहे हैं? आप यह कह रहे हैं कि तेरे लोभ को तू संतोष की तरफ लगा; क्योंकि संतोष से सुख मिलेगा। और तू सुख चाहता है तो संतुष्ट हो जा। लेकिन ध्यान सुख पर है; पाना सुख है। और मजा यह है कि वह दुखी इसीलिए हो रहा है कि वह कोई सुख पाना चाह रहा था जो उसे नहीं मिला है। अब उसके दुख का कारण क्या है? उसके दुख का कारण यह है कि वह सुख चाहता था कोई, जो नहीं मिला है, इसलिए दुखी है। सुख चाहने के कारण दुखी है। और हम उससे कह रहे हैं, सुख तुझे चाहिए हो तो संतुष्ट हो जा। हम संतुष्ट होने की भी बात इसलिए कह रहे हैं कि तू ताकि सुख पा सके। सुख की वासना को हम जलाए हुए हैं; उसको हम तेल दे रहे हैं; उस लौ को हम और उकसा रहे हैं। उसी के कारण वह दुखी है।
तो ध्यान रहे, संतोष से सुख मिलेगा, यह बात गलत है। हां, संतुष्ट जो है वह सुखी है, यह बात सच है। संतोष कारण नहीं है और सुख कार्य नहीं है। संतोष, सुख के बीच जो संबंध है, वह कार्य-कारण का नहीं है कि आप संतुष्ट हो जाएं तो आप सुखी हो जाएं। संतोष और सुख के बीच जो संबंध है वह वैसा है जैसा आपके और आपकी छाया के बीच है। वह कार्य-कारण का नहीं है। जहां आप हैं वहां आपकी छाया है। सुख संतोष की छाया है, उसका फल नहीं है। इसलिए जो आदमी सुखी होने के लिए संतुष्ट होगा वह न तो संतुष्ट होगा और न सुखी होगा। क्योंकि
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