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ताओ उपनिषद भाग ४
पूर्वीय विचार बिलकुल उलटा है : वर्तुलाकार है जीवन की गति। जहां से शुरू होती है रेखा, वर्तुल वहीं आकर पूरा हो जाता है। इसलिए जो हुआ है वह फिर-फिर होगा। और जो मूल था वह फिर उपलब्ध होगा।
एक बहुत मजे की बात ध्यान रखने जैसी है, क्योंकि इन मौलिक दृष्टिकोणों पर जीवन के सभी अंग प्रभावित होते हैं। भारत की भाषाओं में बीते कल के लिए और आने वाले कल के लिए एक ही शब्द है-कल। जो जा चुका उसके लिए भी वही शब्द है; जो आने वाला है उसके लिए भी वही शब्द है। यस्टरडे भी कल; टुमारो भी कल। दुनिया की किसी भाषाओं में ऐसा नहीं है। क्योंकि पूरब की धारणा यही है कि जो बीत गया है, वह फिर आ जाएगा; जो कल था वह फिर कल हो जाएगा। आने वाला कल कोई नई बात नहीं है। वह आवर्तन है बीते का ही। दोनों ही कल हैं। जो बीत गया परसों, उसको भी हम परसों कहते हैं। जो आने वाला है, उसको भी परसों कहते हैं। हम बीच में खड़े हैं जो हो गया वह, और वही फिर होगा। यह वर्तुलाकार समय की दृष्टि है। पश्चिम के लोगों की बिलकुल समझ में नहीं आता कि बीते हुए कल के लिए भी एक शब्द और आने वाले कल के लिए भी एक शब्द! बहुत उलझन में डालता है। शब्द अलग होने चाहिए। लेकिन शब्दों के पीछे भी जीवन-दृष्टिकोण होते हैं।
फिर पूरब का दृष्टिकोण ज्यादा वैज्ञानिक मालूम होता है। क्योंकि जीवन की सभी तरह की गतियां वर्तुलाकार . हैं। चांद घूमता है तो वर्तुल में; सूरज घूमता है तो वर्तुल में; पृथ्वी घूमती है तो वर्तुल में; सारे ग्रह-नक्षत्र, पूरा ब्रह्मांड घूमता है वर्तुल में; मौसम आते हैं वर्तुल में। सिर्फ मनुष्य का जीवन क्यों वर्तुलाकार नहीं होगा जहां सभी कुछ वर्तुलाकार है! मनुष्य का जीवन अपवाद नहीं हो सकता। प्रकृति के महानियम के भीतर मनुष्य का जीवन भी अंतर्निहित है। मनुष्य कोई प्रकृति के बाहर घटी हुई दुर्घटना नहीं है। मनुष्य भी प्रकृति के भीतर ही जीता, जन्मता, बढ़ता, फैलता
और लीन होता है। तो जो प्रकृति का नियम है वर्तुल, वही मनुष्य के जीवन का भी नियम होना चाहिए। पूरब की दृष्टि ज्यादा प्राकृतिक है। पश्चिम की दृष्टि मनुष्य को कुछ अनूठा मान लेती है, अलग मान लेती है।
विज्ञान कहता है कि सभी गतियां सर्कुलर हैं। नवीनतम खोजें सीधी रेखाओं में विश्वास नहीं करतीं। यूक्लिड ने सीधी रेखाओं के सिद्धांत को जन्म दिया था। और यूक्लिड का खयाल है कि दो समानांतर रेखाएं कहीं भी नहीं मिलेंगी, पैरेलल लाइंस कहीं भी नहीं मिलती हैं। लेकिन जैसे-जैसे समझ पश्चिम में भी विकसित हुई है तो नॉन-यूक्लिडियन ज्यामेट्री का जन्म हुआ। नॉन-यूक्लिडियन ज्यामेट्री बिलकुल उलटी है। नॉन-यूक्लिडियन ज्यामेट्री कहती है, सीधी रेखा का तो अस्तित्व ही नहीं है; कोई सीधी रेखा खींची भी नहीं जा सकती। अगर आप एक सीधी रेखा खींचते हैं तो वह आपको सीधी दिखाई पड़ती है; सीधी हो नहीं सकती। क्योंकि जिस पृथ्वी पर आप बैठ कर खींच रहे हैं वह वर्तुलाकार है। अगर उस रेखा को हम बढ़ाते चले जाएं दोनों तरफ तो वह पृथ्वी को घेरने वाला वर्तुल बन जाएगी। तो सभी सीधी रेखाएं किसी बड़े वर्तुल का खंड हैं। कोई सीधी रेखा होती ही नहीं। सीधी रेखा के होने का उपाय ही नहीं है।
यह थोड़ा मुश्किल मालूम पड़ता है, क्योंकि बचपन से हम सबने यूक्लिड की ज्यामेट्री पढ़ी है। स्कूलों में अब भी पढ़ाया जा रहा है कि दो समानांतर रेखाएं कहीं नहीं मिलती हैं, और सीधी रेखा वर्तुल का खंड नहीं है। लेकिन सीधी रेखा होती ही नहीं, और समानांतर रेखाएं भी नहीं होतीं। अगर हम खींचते ही चले जाएं तो समानांतर रेखाएं भी कहीं जाकर मिल जाती हैं। कितनी ही दूरी हो वह मिलने की, लेकिन मिल जाती हैं। क्योंकि सीधी रेखा नहीं हो सकती तो समानांतर रेखाएं भी नहीं हो सकतीं। सब रेखाएं झुकती हैं और वर्तुल बन जाती हैं।
लेकिन पूरब पहले से ही मानता रहा है कि जीवन में कोई सीधी रेखा नहीं होती। फिर जहां-जहां गति है वहां-वहां वर्तुल दिखाई पड़ता है। नदियां हैं। अगर हमें पूरा वर्तुल खयाल में न हो तो शक हो सकता है। नदी गिरती है सागर में; भाप बनती है; आकाश में बादल बनते हैं; बादल पर्वतों पर पहुंच जाते हैं; वर्षा होती है। नदी का स्रोत
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