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तो उपवियर
व्यक्ति है। गॉडलेस एंड गॉडलाइक, दोनों एक साथ। एच.जी.वेल्स ने लिखा है कि समझ झकझोर जाती है कि इस आदमी को समझो कैसे! क्योंकि इससे ज्यादा ईश्वर जैसा आदमी खोजना मुश्किल है। और यह आदमी कहता है, ईश्वर नहीं है।
हम इसे अगर इस तरह समझ पाएं तो बात बहुत सरल हो जाएगी। सत्य को पाने के दो उपाय हैं : विश्लेषण और संश्लेषण, इनकार या स्वीकार। लेकिन दोनों हालत में एक शर्त है-पूर्णता, टोटैलिटी। नास्तिक होना है तो पूरे ही नास्तिक हो जाएं, और आप ब्रह्म को उपलब्ध हो सकेंगे। अधूरी नास्तिकता से नहीं चलेगा। आस्तिक होना है तो पूरे आस्तिक हो जाएं। अधूरी आस्तिकता से नहीं चलेगा।
लेकिन जमीन पर अधुरे लोगों की भीड़ है। अधूरे आस्तिक, अधूरे नास्तिक; सब तरह के आधे-आधे लोग हैं। जब भी कोई आदमी किसी भी दृष्टि में पूरा उतर जाता है तो समस्त अपूर्णताओं से मुक्त हो जाता है, समस्त दृष्टियों से मुक्त हो जाता है। दोनों ही स्थितियों में पता चलेगा, आप नहीं हैं। या तो बूंद को भाप बना कर उड़ा दें, शून्य में डूब जाएं, या बूंद को सागर में उतार दें और विराट के साथ एक हो जाएं। बस आप मिट जाएं। आपके अतिरिक्त और कोई बाधा नहीं है।
पवना
पांचवां प्रश्नः लाओत्से पहले कहते थे कि ताओ के मानने वाले हवा-पानी की तरह जीते हैं-महज और अबायामा आँर उस दिन लाओत्से ने कहा कि श्रेष्ठ कोटि के श्रावक ताओ के अनुसार जीने की अथक चेष्टा करते है। इस विरोध को स्पष्ट करें।
विरोध नहीं है। ताओ को उपलब्ध व्यक्ति तो हवा-पानी की तरह जीता है, लेकिन ताओ की तरफ चलने वाला व्यक्ति हवा-पानी की तरह कैसे जी सकता है? हवा-पानी की तरह जीने के लिए भी उसे पहले प्रयास करना पड़ेगा। यात्रा के प्रारंभ में आप पूरी मंजिल को कैसे उपलब्ध हो सकते हैं? आपको पुरानी आदतें तोड़नी पड़ेंगी; पुरानी कंडीशनिंग है, संस्कार हैं, उनको नष्ट करना पड़ेगा। वे जगह-जगह आपको घेरे हुए हैं। आप जान भी लेंगे कि वह गलत है तो भी वे पीछा करेंगे। क्योंकि सिर्फ जान लेना काफी नहीं है। आपने वर्षों, जन्मों तक उनकी साधना की है।
___ एक आदमी है; वह तय कर लेता है, समझ लेता है कि सिगरेट पीना बुरा है; धूम्रपान बंद कर दूं। लेकिन उसके खून ने निकोटिन की आदत बना ली है। उसके खून में इतनी बुद्धि अभी नहीं पहुंच सकती है एकदम से। आपके निर्णय करने का पता खून को नहीं चलेगा। उसके हृदय की धड़कन भी निकोटिन की मांग करती है। वह आदी हो गया है। निकोटिन उसके शरीर का भोजन हो गया है। अब अगर निकोटिन नहीं पहुंचेगा तो वह सुस्त मालूम पड़ेगा। और जब सुस्त मालूम पड़ेगा तो शरीर मांग करेगा कि मुझे धूम्रपान दो। किसी काम में रस नहीं मालूम पड़ेगा। कुछ भी करने जाएगा, तो लुंज-पुंज होगा। हाथ-पैर उठते हुए मालूम नहीं पड़ेंगे। शरीर बगावत करेगा। शरीर कहेगा, मेरा भोजन मुझे दो।
शरीर को कुछ पता नहीं कि आपकी बुद्धि को क्या पता चल गया है कि सिगरेट पीना बुरा है, पाप है। किसी साधु-संन्यासी को सुन कर आपने भावावेश में कसम खा ली, संकल्प कर लिया कि अब नहीं पीऊंगा। अब आप मुश्किल में पड़े। शरीर को पता नहीं है आपके साधु का, संन्यासी का, शास्त्र का। आपने सुन लिया और आपने निर्णय ले लिया। शरीर से आपने पूछा ही नहीं कि मैं चालीस साल से सिगरेट पीता था, तो चालीस साल में निकोटिन
की जो आदत बन गई है, वह भोजन का हिस्सा हो गई है, उसको कैसे अलग करूं? तो जब तक, आप कितना ही निर्णय कर लें, जब तक यह आदत न बदलेगी तब तक आपको संघर्ष जारी रखना पड़ेगा।
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