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मार्ग स्वयं के भीतर से है
केंद्र को समझना हो तो मन के साक्षी होना जरूरी है और मन को समझना हो तो मन का विश्लेषण करना जरूरी है। ये दोनों अलग बातें हैं। मन को समझना हो तो विश्लेषण जरूरी है; मन की एक-एक घटना को तोड़ कर पहचानने की कोशिश जरूरी है। जिसको पश्चिम में वे मनोविश्लेषण कह रहे हैं, साइकोएनालिसिस कह रहे हैं, वह मन का मंथन है। मन में लोभ उठा, तो इस लोभ की पूरी वृत्ति का विश्लेषण करना जरूरी है। कब उठता है, क्यों उठता है, कितने दूर तक फैलता है, किस भांति पकड़ता है, क्या परिणति होती है, कहां ले जाता है, फिर कैसे उठता है; इस लोभ के उठने वाले वृक्ष को उसके बीज से लेकर अंत फूलों तक स्पष्ट रूप से देखना, समझना, पहचानना, उसके स्वभाव को पकड़ना विश्लेषण है। और जो व्यक्ति मन का ठीक से विश्लेषण करने लगे वह संसार को समझ गया। क्योंकि संसार में इसी मन का खेल चल रहा है। सभी के पास यही मन है। और सभी इसी मन से प्रभावित होकर चल रहे हैं, जी रहे हैं।
___ इसे थोड़ा प्रयोग करना शुरू करें। अपने मन का थोड़ा विश्लेषण करें। और अपने मन के कुछ सूत्र निकालें और नियम बनाएं। और फिर देखें कि दूसरे लोग भी उन्हीं नियमों के अनुसार काम कर रहे हैं या नहीं?
आप चकित हो जाएंगे, हर व्यक्ति उन्हीं नियमों के अनुसार काम कर रहा है। और तब आप दूसरे के भी भविष्यद्रष्टा हो सकते हैं। जब कोई आपको गाली देता है तो आपके भीतर क्या होता है, इसका पूरा विश्लेषण कर लें; फिर किसी को गाली देकर देखें। और तब आप जान सकते हैं कि जो-जो आपके भीतर हुआ है, ठीक उन्हीं कदमों में दूसरे व्यक्ति के भीतर होगा। और अगर आपने अपना विश्लेषण ठीक कर लिया है तो आप दूसरे के व्यवहार को भी तत्क्षण समझ जाएंगे।
इसलिए जीसस ने कहा है कि दूसरे के साथ वह मत करो जो तुम नहीं चाहते कि वह तुम्हारे साथ करे।
यह मन के विश्लेषण का सूत्र हुआ। इसको हम नीति का आधार कह सकते हैं। इसे हम अपने सारे व्यवहार की व्यवस्था बना सकते हैं कि मैं दूसरे के साथ वह न करूं जो मैं चाहता हूं कि दूसरा मेरे साथ न करे। क्योंकि एक ही मन दोनों के पास है, और जिससे मुझे दुख होता है उससे दूसरे को दुख होता है, और जिससे मुझे सुख होता है उसी से दूसरे को भी सुख होता है।
महावीर ने अपने पूरे आचरण, धर्म की व्यवस्था इसी सूत्र पर रखी है। और महावीर ने कहा है कि जानो कि जिससे तुम्हें दुख होता है उससे दूसरे को दुख होता है। और अगर तुम इतना जान कर दूसरे को दुख देने से बच सकते हो तो तुम अहिंसक हो गए। अहिंसा का इतना ही अर्थ है कि जो तुम नहीं चाहते कि कोई तुम्हारे साथ करे वह तुम दूसरे के साथ मत करना। पूरा जीवन बदल जाए।
लेकिन हम सब इसी भ्रांति में जीते हैं कि जब हमें कोई गाली देता है तब तो हमें दुख होता है, और जब हम किसी को गाली देते हैं तो शायद उसे आनंदित होना चाहिए, शायद उसे धन्यवाद देना चाहिए, उत्सव मनाना चाहिए कि आपने बड़ी कृपा की जो गाली दी। और जब दूसरा कोई हमें कुछ दान देता है, प्रेम देता है, कुछ बांटता है, तो हम प्रसन्न होते हैं। लेकिन हम दूसरे को बांटने को तैयार नहीं हैं; हम दूसरे से छीनने की कोशिश में लगे हैं। और जब हमें कोई सुखी करता है तो हम उसके सुख की कामना करते हैं।
ध्यान रहे, जब हम लोगों को सुखी करेंगे तो ही वे हमारे सुख की कामना करेंगे। लेकिन हमारे पास डबल बाइंड, दोहरे सिद्धांत हैं-अपने लिए अलग और दूसरे के लिए अलग। अधर्म का यही अर्थ है: मैं अपने लिए कुछ और ढंग से सोचता हूं और दूसरे के लिए कुछ और ढंग से सोचता हूं। अगर कोई हमें गाली देता है या कोई हम पर क्रोध करता है, तो हम सोचते हैं कि यह दुष्ट है! और अगर हम किसी पर क्रोध करते हैं तो हम उसके सुधार के लिए कर रहे हैं। दूसरा हमारे सुधार के लिए कभी क्रोध करता हुआ मालूम नहीं होता; हम सदा दूसरे के
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