Book Title: Tao Upnishad Part 04
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

View full book text
Previous | Next

Page 427
________________ जीवन परमात्म-ऊर्जा का खेल हैं 417 और ऐसा किसी एक व्यक्ति के साथ थोड़े ही है कि वह स्वभाव से दूर निकल गया है; सभी स्वभाव से दूर निकल गए हैं। पर दूर निकलने का इतना ही मतलब है कि वे पीठ करके चलते रहे हैं। वस्तुतः तो कोई स्वभाव से दूर नहीं निकल सकता। कैसे निकलेंगे ? स्वभाव का मतलब ही यह है कि जो आप हैं। कौन निकलेगा दूर ? स्वभाव और आप दो होते तो कहीं स्वभाव को छोड़ कर भाग आ सकते थे। स्वभाव यानी आप । तो आप दूर कैसे निकलेंगे ? कोई दूर निकलने का उपाय नहीं है। वस्तुतः स्वभाव की परिभाषा समझ लेनी चाहिए। स्वभाव की परिभाषा यह है : जिसे छोड़ा न जा सके। जिसे छोड़ा जा सके वह परभाव है, वह स्वभाव नहीं है। स्वभाव का मतलब है, जिसे अपने से अलग किया ही नहीं जा सकता। लाख उपाय करें तो भी स्वभाव से भिन्न आप हो नहीं सकते। तो पहली तो बात यह है कि स्वभाव से आप दूर नहीं जा सकते, स्वभाव को छोड़ नहीं सकते, स्वभाव से विपरीत नहीं हो सकते। लेकिन तब सवाल यह उठता है, तो फिर यह लाओत्से निरंतर कहे चला जा रहा है— स्वभाव में डूबो ! स्वभाव में उतरो ! स्वभाव में प्रतिष्ठित हो जाओ! तो इसकी बात गलत होनी चाहिए, अगर हम स्वभाव खो ही नहीं सकते तो । इसकी बात भी गलत नहीं है। हम स्वभाव के प्रति बेभान हो सकते हैं, स्वभाव के प्रति इनअटेंटिव हो सकते हैं, स्वभाव के प्रति ध्यान छोड़ सकते हैं। स्वभाव का स्मरण खो सकते हैं, स्वभाव नहीं खो सकते। जैसे आपके खीसे में एक हीरा रखा है। आप भूल सकते हैं, विस्मरण हो सकता है कि खीसे में हीरा है; इससे हीरा नहीं खो जाता। हीरा खीसे में है, चाहे आप याद रखें, चाहे याद न रखें। स्वभाव आपके भीतर है। तो जब आप वस्तुओं में, वासनाओं में, इच्छाओं में भटकते हैं, तो विस्मरण हो जाता है। इसलिए भारत के संतों ने कहा है, परमात्मा को पाना नहीं है, केवल प्रभु स्मरण ! सिर्फ प्रभु स्मरण करना है; पाना नहीं है। क्योंकि पाना तो उसे होता है जिसे हमने कभी खोया हो । परमात्मा को हम खो नहीं सकते। सिर्फ स्मरण ! पर हम तो हर चीज से व्यर्थता निकाल लेते हैं। तो लोग हैं जो हरि-स्मरण कर रहे हैं, प्रभु स्मरण कर रहे हैं, राम-राम, राम-राम जप रहे हैं। अपनी चदरिया को उन्होंने राम चदरिया बना ली है, उस पर सब राम-राम लिख लिया है। प्रभु स्मरण का अर्थ है कि जो मेरे भीतर छिपा है उसका मुझे बोध हो जाए। राम-राम दोहराने से बोध नहीं हो जाएगा। मेरी आंखें जो बाहर भटक रही हैं भीतर मुड़ जाएं; मेरे कान जो बाहर सुन रहे हैं भीतर सुनने लगें; मेरी बुद्धि जो बाहर के संबंध में सोच रही है वह भीतर मुड़ जाए, उसका दीया, उसका प्रकाश भीतर पड़ने लगे। इसी क्षण आप स्वभाव में प्रतिष्ठित हो सकते हैं, क्योंकि प्रतिष्ठित तो आप हैं ही। कभी कोई आपको वहां से अप्रतिष्ठित न कर सका है, न कर सकेगा इसीलिए हजारों जन्मों तक भी भटक कर आप भटक नहीं पाते। आपकी क्षमता उसे वापस पाने की प्रतिपल उतनी ही है जितनी कभी थी; उसमें रत्ती भर कमी नहीं हुई। अभी चाहें, इसी क्षण, तो मुड़ सकते हैं। मुड़ने में कोई बाधा अगर है तो वह आपकी आदतों की है; स्वभाव के दूरी की कोई बाधा नहीं है। अगर कोई बाधा है तो यह कि आप एक तरफ इतने दिन से देखते रहे कि गर्दन जकड़ गई। खिड़की पर खड़े हैं अगर एक साल से और पीछे लौट कर नहीं देखा तो गर्दन जकड़ गई। मकान पीछे है, कमरा पीछे है, जहां आप विश्राम सकते हैं। लेकिन आप कहेंगे, बड़ी कठिनाई है, मालूम होता है बहुत दूर निकल गए। दूर नहीं निकले हैं, केवल लकवा लग गया है गर्दन में। इसलिए सारे उपाय इस लकवा को दूर करने के लिए हैं। परमात्मा को पाने का कोई उपाय नहीं है; परमात्मा मिला हुआ है। सिर्फ आपकी गर्दन जकड़ गई है बाहर देखते-देखते; पीछे मुड़ना भूल गई है। बस उसे पीछे मुड़ना सिखाना है। सारे योग, सारी विधियां, आपकी गर्दन की नसों को थोड़ा ढीला करने के लिए हैं; मसाज की तरह हैं। थोड़ी गर्दन ढीली हो जाए, जकड़ी हुई मांस-पेशियां शिथिल हो जाएं और आपकी गर्दन मुड़ जाए, और आप उसे पा लें जिसे आपने कभी भी खोया नहीं है। जो खोया जा सके वह स्वभाव नहीं है। भूला जा सकता है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444