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ताओ उपनिषद भाग ४
इनका, तू जा और गंगा में फेंक आ। वह आदमी गया तो बड़ी देर हो गई, लौटा नहीं। तो रामकृष्ण ने कहा, देखो, वह क्या कर रहा है? जरूर वह गिन-गिन कर फेंक रहा होगा।
फेंकने में भी गिनने की कोई जरूरत तो नहीं है। मगर वह आदमी यही कर रहा था। न केवल वह गिन रहा था, बजा रहा था पत्थर पर। जब खन्न से बजती थी-और भीड़ इकट्ठी हो गई थी तब वह एक फेंकता था। और गिनती कर रहा था-एक, दो...। हजार मुद्राएं थीं। जिन संन्यासी को रामकृष्ण ने भेजा उन्होंने जाकर कहा, तू यह क्या कर रहा है? बड़ी देर हो गई। वापस आया तो रामकृष्ण ने कहा, पागल, इकट्ठा करने में जितना समय लगता है,
और इकट्ठा करने में गिन-गिन कर ही करना पड़ता है, उतना समय फेंकने में लगाने की जरूरत नहीं। पोटली पूरी ही फेंक आना था। जब फेंक ही रहे हैं तो हिसाब क्या रखना? और यह बजा क्यों रहा था?
मगर उसकी जो आदत इकट्ठा करने की थी उसी आदत को वह फेंकने में भी काम ला रहा था। उसे दूसरी बात का पता ही नहीं था। यही अड़चन है। करोड़ों वर्ष में संग्रह किया है: छोड़ एक क्षण में सकते हैं। पकड़े आप हैं. अतीत आपको नहीं पकड़े हुए है। अतीत मुर्दा है; वह आपको पकड़ेगा भी कैसे? राख है, धूल की तरह आप पर है; आप झाड़ दे सकते हैं।
इसलिए निराश होने की कोई भी जरूरत नहीं है। और अगर नहीं उतार पा रहे हैं, तो अतीत का बोझ ज्यादा है, इस भांति मत सोचें। आपकी पकड़ गहरी है; तादात्म्य भारी है; लगाव है। हमारी कठिनाई यह है कि जो हम छोड़ना चाहते हैं उससे हमारा लगाव है। तो इधर हम जब सुनते हैं बात छोड़ने की और सोचते हैं छोड़ने से परम आनंद मिलेगा, छोड़ दें। लेकिन हमारे भीतरी लगाव हैं और उन लगावों से हमको खयाल है कि आनंद, रस, कुछ सुख मिलने वाला है। उसकी वजह से हम पकड़े हुए हैं।
इस संबंध में बहुत साफ हो जाना चाहिए। जिसको भी छोड़ना है उस संबंध में पूरा स्पष्ट हो जाना चाहिए कि उसमें हमारा कोई इनवेस्टमेंट तो नहीं है? उससे हम कुछ पाने की आशा तो नहीं किए हैं? क्योंकि पाने की अगर आशा किए हुए हैं तो छोड़ेंगे कैसे? हमारी अड़चन यही है कि जो-जो हम पकड़े हुए हैं उससे हमें पाने की आशा है। और इधर जब सुनते हैं, संतों ने जो कहा है, उसमें भी हमारा लोभ पैदा होता है। वह भी लोभ है; वह भी समझ नहीं है। उसमें लगता है कि इतना आनंद मिलता है!
कबीर कहते हैं, अमृत बरस रहा है। कबीर कहते हैं, कबीर नाच रहा है और आकाश से अमृत बरस रहा है। सुनते हैं लोभी; उनके मन में भी, उनकी जीभ पर भी लार आ जाती है कि ऐसा अमृत हम पर भी बरसे। तो वे भी सोचने लगते हैं कि कबीर कहते हैं, छोड़ दो सब वासना तो अमृत बरसेगा, तो वे सोचते हैं कि छोड़ दें सब वासना। अमृत बरसे इसलिए, इस लोभ के लिए।
और फिर हर वासना से उनका लोभ जुड़ा है। अगर यह वासना छोड़ते हैं तो पत्नी से जो सुख मिला है वह, धन से जो सुख मिल रहा है वह, पद से जो सुख मिल रहा है वह, उसका क्या होगा? हमारे लिए अध्यात्म और संसार दोनों ही लोभ हैं; और इसलिए हम बड़ी बिबूचन में है। हमारी हालत उस गधे जैसी है। बहुत पुरानी पंचतंत्र की कथा है। एक बुद्धिमान आदमी ने एक गधे के दोनों तरफ बराबर दूरी पर घास के ढेर लगा दिए। वह गधा कभी तो सोचे कि बाएं जाऊं; बाएं की ढेरी उसको प्रीतिकर लगे। तभी उसे खयाल आए कि दायां भी ज्यादा दूर नहीं है, उतनी ही दूरी पर है; दाएं चला जाऊं। लेकिन दाएं जाता है तो बायां छूटता है; बाएं जाता है तो दायां छूटता है। कहते हैं, वह गधा मर गया भूखा, क्योंकि वह बीच में ही खड़ा चिंतन में ही लीन रहा।
गधे वैसे ही चिंतक होते हैं। सोचते हैं, सोचते चले जाते हैं। गधे इसलिए इतने उदास दिखते हैं खड़े हुए; जहां भी उनको देखो, वे काफी सोच रहे हैं। वह जो रोडिंग की बड़ी प्रसिद्ध कलाकृति है, विचारक, उसमें एक विचारक
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