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ताओ उपविषद भाग ४
रहते हैं। प्यास जारी रहती है, दुख जारी रहता है; लेकिन खोज बंद हो जाती है। ये सब्स्टीटयूट हैं, ये परिपूरक हैं। और खतरनाक हैं।
वास्तविक खोजी के लिए निर्णय लेने की जल्दी नहीं करनी चाहिए। रुकना चाहिए, अपने को सम्हालना चाहिए, और खोज जारी रखनी चाहिए। जिस दिन खोज उस जगह ले आए जहां प्रकट हो जाए जीवन का रहस्य, उस दिन निर्णय लें। लेकिन उस दिन आप अपने को आस्तिक-नास्तिक नहीं कहेंगे। उस दिन ये शब्द ओछे पड़ जाएंगे। उस दिन हां और न का कोई मतलब न रहेगा। उस दिन आप हंसेंगे सारे विवाद पर। उस दिन आप कहेंगे, हां कहने वाले उतने ही नासमझ हैं जितने न कहने वाले। उस दिन आप कहेंगे कि परमात्मा दोनों को समा लेता है, हां और न को; आस्तिकता-नास्तिकता दोनों ही उसमें लीन हो जाती हैं। उस दिन आप कहेंगे कि ये दोनों बातें भी अधूरी हैं, दोनों को इकट्ठा जोड़ दो तो ही परमात्मा पूरा हो पाएगा। क्योंकि परमात्मा इतना बड़ा है कि अपने सब विरोधाभासों को समा लेता है। उस दिन आप इस तरह की पार्टी-बंदी में नहीं हो सकते हैं। जिन्होंने भी जाना है वे समस्त विरोधों को आत्मसात कर लेते हैं।
तीसरा प्रश्न : मुझे लगता है कि जीवन-यात्रा में में स्वभाव से बहुत दूर निकल आया हूं। तो क्या स्वभाव में वापस लौटने की, प्रतिक्रमण की यात्रा भी इतनी ही लंबी होगी? या उसमें कोई शार्टकट भी संभव है?
शार्टकट तो बिलकुल संभव नहीं है। और दूसरी बात और खयाल से समझ लें, यात्रा इतनी लंबी नहीं होगी। यात्रा होगी ही नहीं। करीब-करीब हालत ऐसी है कि एक आदमी सूरज की तरफ पीठ करके खड़ा है और चलता जा रहा है। हजार मील चल चुका है। और हम उससे आज कहते हैं कि तू सूरज की तरफ हजार मील चल चुका पीठ करके, इसीलिए अंधेरे में भटक रहा है। और प्रकाश को खोजना चाहता है। तो वह आदमी कहेगा कि क्या सूरज की तरफ मुंह करने के लिए मुझे हजार मील फिर चलना पड़ेगा? उससे हम कहेंगे, नहीं, हजार मील नहीं चलना पड़ेगा। वह कहे कि क्या कोई शार्टकट हो सकता है कि दो-चार-पांच मील चलने से हो जाए? हम कहेंगे, दो-चार-पांच मील चलने की भी कोई जरूरत नहीं है; तू सिर्फ रुख बदल ले; तू सिर्फ पीठ सूरज की तरफ किए है, मुंह कर ले। क्योंकि सूरज कोई एक स्थान में बंधा हुआ नहीं है। और जब तू सूरज की तरफ पीठ करके जा रहा था तब भी सूरज तेरे पीछे साथ ही था।
परमात्मा अगर कहीं एक जगह बंधा होता, या स्वभाव कहीं कैद होता, हम उससे दूर निकल सकते थे। हम दूर नहीं निकल सकते हैं, हम सिर्फ पीठ कर सकते हैं। इसलिए कोई लाखों जन्मों तक स्वभाव से पीठ किए रहा हो, कोई फर्क नहीं पड़ता। आज मुंह फेरने को राजी हो जाए, स्वभाव में प्रविष्ट हो जाएगा।
इसलिए न तो मैं कहता हूं कि उतना ही चलना पड़ेगा जितना आप विपरीत चले हैं और न मैं कहता हूं कि कोई शार्टकट संभव है। शार्टकट की तो कोई जरूरत ही नहीं है। क्योंकि चलना ही नहीं है, सिर्फ रुख बदलना है।
ऐसा समझें कि इस कमरे में अंधेरा भरा हो हजारों साल से और हम कहें कि दीया जलाएं। तो कोई पूछे कि क्या हजारों साल तक दीया जलाते रहेंगे तब अंधेरा मिटेगा? क्योंकि अंधेरा हजारों साल पुराना है और अभी दीया जलेगा तो एकदम से कैसे अंधेरे को मिटाएगा? इतना पुराना अंधेरा! कोई जल्दी का उपाय नहीं है? तो हम उससे कहेंगे, न तो देर लगेगी और न जल्दी का कोई सवाल है। क्योंकि दीया जला नहीं कि अंधेरा मिट जाएगा। अंधेरे की कोई प्राचीनता नहीं होती; अज्ञान की कोई प्राचीनता नहीं होती। वह कितना ही समय रहा हो, उसकी पर्ते नहीं जमतीं। उनको काटना नहीं पड़ेगा। ज्ञान की एक किरण-और अंधेरा कट जाता है, और अज्ञान छूट जाता है।
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