Book Title: Tao Upnishad Part 04
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 412
________________ ताओ उपनिषद भाग ४ इस बात को ठीक से समझ लें। एक आदमी राम बनता है रामलीला में। सीता खो जाती है, चोरी चली जाती है। वह रोता है, चिल्लाता है, सीता! सीता! वृक्षों से पूछता है, मेरी सीता कहां है? और भीतर उसको कुछ भी नहीं हो रहा। कृत्य वह पूरा कर रहा है। शायद राम भी देखें तो वे भी थोड़ा संकोच अनुभव करें कि इतने जोरदार ढंग से मैंने भी नहीं किया था, जिस ढंग से अभिनेता करेगा; जैसे वृक्ष से पूछेगा जिस ढंग से, जिस लज्जत से। आंख से आंसू टपक रहे होंगे, और भीतर कोई रुदन नहीं। पर्दा गिरेगा, वह पीछे जाकर मजे से चाय पीएगा। सीता का खोना न खोना अभिनेता के लिए मूल्य नहीं रखता; कर्ता के लिए मूल्य रखता है। अगर लगता हो, मेरी सीता खो गई, तो अड़चन है। मेरे अहंकार को पीड़ा और चोट लगे तो अड़चन है। मेरे राग, मेरी कामना और वासना को चोट लगे तो अड़चन है। मेरी आसक्ति को घाव लगे तो अड़चन है। लेकिन अगर मैं वहां नहीं हूं, कर्ता नहीं हूं; सिर्फ अभिनेता हूं। संत अभिनय कर रहा है। जो भी इस संसार के मंच पर जरूरी है, कर रहा है, लेकिन इस करने में वह कर्ता नहीं है। रो भी सकता है, हंस भी सकता है; लेकिन न हंसने में है और न रोने में है। कृष्ण बहुत जोर देकर अर्जुन को गीता में यही बात समझा रहे हैं कि तू लड़ एक अभिनेता की तरह, तू कर्ता मत बन; तू समझ कि परमात्मा ने इस परिस्थिति में तुझे रखा, यही तेरा नाटक है, तू इसे पूरा कर। तू इससे भाग मत। क्योंकि भागने में तो त भयभीत होगा, भागने में तो त भागने का कम से कम कर्ता हो जाएगा। तू अपनी तरफ से निर्णय मत ले। परिस्थिति जहां तुझे ले आई है, नियति ने तुझे जहां खड़ा कर दिया है, तू उसे चुपचाप स्वीकार कर ले और पूरा कर दे। तू अपने को निमित्त मान। लाओत्से कह रहा है, 'और बिना कर्म किए हुए सब कुछ संपन्न करते हैं।' अपनी तरफ से कुछ भी नहीं कर रहे हैं, अस्तित्व उनसे जो करवा ले। जीवन तो जीवन और मृत्यु तो मृत्यु! अस्तित्व उन्हें जहां ले जाए, वे चुपचाप चले जाते हैं। लाओत्से का वचन है, संत सूखे पत्ते की तरह हैं, हवा उन्हें जहां ले जाए, पूरब तो पूरब, पश्चिम तो पश्चिम। जमीन पर गिरा दे तो ठीक और आकाश में उठा दे तो ठीक। सूखा पत्ता अपना निर्णय नहीं ले रहा है, हवा जहां ले जाए। उसका अपना कोई अहंकार नहीं है, उसका अपना कोई मैं-भाव नहीं है। उससे बहुत कर्म होते हैं; शायद साधारण आदमी से ज्यादा कर्म होते हैं। थोड़ा समझें। एक अभिनेता रामलीला में राम का काम कर सकता है; दूसरे दिन रामलीला में रावण बन सकता है; तीसरे दिन कुछ और बन सकता है। और एक जिंदगी में हजार अभिनय कर सकता है। राम एक ही अभिनय कर सकते हैं अपनी जिंदगी में। अभिनेता के करने की क्षमता बढ़ जाती है। क्योंकि उसका कर्ता कहीं जुड़ता नहीं, इसलिए वह हमेशा पीछे बचा हुआ है। सब ऊपर-ऊपर है। वह चुकता नहीं, उसकी शक्ति व्यय नहीं होती। अगर आप अभिनेता हैं तो आपके जीवन में विराट कर्म हो सकता है, अनंत कर्म हो सकते हैं, और फिर भी आप थकेंगे नहीं। अगर आप कर्ता हैं तो छोटा सा कर्म थका देगा; उसमें ही जिंदगी चुक जाएगी और नष्ट हो जाएगी। एक बार मैं छूट जाऊं अलग अपने कर्मों से, उनका द्रष्टा हो जाऊं और उनको सिर्फ स्वीकार कर लूं एक नाटक के मंच पर खेले गए अभिनय जैसा, फिर कितना ही कर्म हो जीवन में, वह कर्म मुझे छुएगा नहीं, थकाएगा नहीं, बासा नहीं करेगा। बल्कि हर कर्म मुझे और ताजा कर जाएगा, हर कर्म मेरी शक्ति को और नया कर जाएगा। हर कर्म मेरी शक्ति के लिए सिर्फ एक खेल होगा। ध्यान रहे, जब आप काम करते हैं तो थकते हैं, और जब आप खेलते हैं तो आप ताजे हो जाते हैं। यह बड़े मजे की बात है। क्योंकि खेल भी काम है। शायद खेल में ज्यादा भी श्रम पड़ता हो काम से, लेकिन खेल में आप थकते नहीं, ताजे होते हैं। आदमी दिन भर का थका हुआ आता है काम से, और वह कहता है कि जरा मैं खेल लूं तो ताजा हो जाऊं। खेल में भी श्रम हो रहा है। अगर हम शरीर-शास्त्री से पूछे तो वह जांच कर बता देगा-कितनी 102

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