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ताओ उपनिषद भाग ४
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यह भेद आत्मा का भेद नहीं है, यह भेद आत्मा के आस-पास जो मन का संस्थान है, उसका भेद है। जन्मों-जन्मों में व्यक्ति अंतर्मुखता या बहिर्मुखता अर्जित करता है। हम उसे लेकर पैदा होते हैं। जब बच्चा पैदा होता है तब भी अंतर्मुखी या बहिर्मुखी होने का भेद होता है उसमें। अगर छोटा बच्चा - मनसविद कहते हैं, खासकर जीन पिआगे, जिसने बच्चों का पूरे जीवन अध्ययन किया है— कि पहले दिन का बच्चा भी व्यक्तित्व से भेद जाहिर करता है। अगर अंतर्मुखी बच्चा है तो वह ज्यादातर आंख बंद किए सोया रहेगा; हिलेगा-डुलेगा भी नहीं। भूख-प्यास जब उसे लगेगी तभी वह आंख खोलेगा, थोड़ा शोरगुल करेगा। बहिर्मुखी बच्चा पहले दिन से ही चारों तरफ देखना शुरू कर देगा; हाथ-पैर फैलाने की कोशिश करेगा, चीजों को पकड़ने की कोशिश करेगा। जीन पिआगे तो कहता है कि मां के गर्भ में भी अंतर्मुखी और बहिर्मुखी व्यक्तित्व का फर्क हो जाता है। वह जो बहिर्मुखी बच्चा है, वहां भी लातें मारना शुरू कर देता है। मां के गर्भ में भी उपद्रव शुरू कर देता है; वह वहां भी क्रांतिकारी है। वह जो अंतर्मुखी बच्चा है वह मां के गर्भ में भी चुपचाप पड़ा रहता है; जैसे है या नहीं, कोई फर्क नहीं। ये हमारे व्यक्तित्व के ढांचे हैं।
आलस्य, अंतर्मुखता है अज्ञानी की। निष्क्रियता, अकर्म, अंतर्मुखता है ज्ञानी की। कर्म, उपद्रव से भरा हुआ कर्म, बहिर्मुखता है अज्ञानी की। सेवा, दूसरे के कल्याण के लिए कर्म में प्रवृत्त होना, बहिर्मुखता है ज्ञानी की। पर ध्यान रहे, चाहे कर्म हो, चाहे अकर्म, दोनों की प्राथमिका शर्त स्वयं में ठहर जाना है। उसके बाद ही शुभ होगा। उसके पहले आप खाली बैठें तो, और कर्म करें तो, दोनों हालत में अशुभ होगा।
फिर भी ध्यान रहे, आलसी लोगों के ऊपर अशुभ का ज्यादा जिम्मा नहीं है। आलसी लोगों ने कुछ बुरा नहीं किया है। यह बहुत हैरानी की बात है कि आलसी की हम निंदा करते हैं, बिना यह जाने कि इतिहास में कोई बड़ी कालिख आलसी लोगों के ऊपर नहीं है। हिटलर, नेपोलियन, मुसोलिनी, तैमूर, नादिर, इनके सामने आप पांच तो आलसी आदमी गिना दें जिन्होंने नुकसान किया हो। आलसी आदमियों का नाम इतिहास में ही नहीं मिलेगा, क्योंकि उन्होंने कोई उपद्रव ही नहीं किया । इतिहास सिर्फ उपद्रवियों को गिनता है। आलसी लोगों ने कभी बुरा नहीं किया, क्योंकि बुरा करने के लिए भी करना तो पड़ेगा। वे करते ही नहीं । निश्चित ही, उन्होंने भला भी नहीं किया। क्योंकि करने में उनका रस नहीं है।
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अगर सिर्फ जीवन का अंतिम हिसाब खयाल में रखा जाए तो आलसी ही चुनने योग्य हैं। उन्होंने भला नहीं किया; उन्होंने बुरा भी नहीं किया। और जो कर्मठ हैं, उन्होंने कुछ भला नहीं किया, बुरा बहुत किया। आलसी आदमी अगर कुछ बुरा भी करे तो वह भी निष्क्रिय बुराई होती है। जैसे घर में आग लगी हो किसी के, तो वह बैठा देखता रहेगा। आग लगाने वह जाने वाला नहीं है; वह बुझाने भी जाने वाला नहीं है। आप अगर उसको दोष भी दे सकते हैं। तो इतना ही कि तुम बैठे देखते रहे, तुमने आग क्यों नहीं बुझाई ? अगर कोई लुट रहा हो तो वह बचाएगा नहीं; अगर किसी स्त्री की इज्जत लूटी जा रही है तो भी वह आंख बंद किए बैठा रहेगा। अगर उसके ऊपर कोई बुरा कृत्य भी है। तो वह बुरा कृत्य सिर्फ निष्क्रिय होने का है, कि वह दूर खड़ा रहता है, वह उपद्रव में नहीं उलझता। लेकिन विधायक रूप से बुराई आलसी आदमी ने कभी की नहीं है।
फिर भी हमारे मन में उसकी निंदा है, क्योंकि हमारी पूरी शिक्षा महत्वाकांक्षा की है। हर बच्चे के मन में हम भाव डाल रहे हैं - कुछ करो, क्योंकि करने से कहीं पहुंचोगे । पश्चिम में अब विचार शुरू हुआ है और आने वाली सदी में कुछ आश्चर्य न होगा कि अब तक के इतिहास का पूरा मूल्यांकन हमें बदलना पड़े। और इसलिए मैं कहता हूं, लाओत्से का बड़ा भविष्य है; अज्ञानियों के लिए भी लाओत्से का बड़ा भविष्य है। क्योंकि पश्चिम के विचारक निरंतर चिंतन कर रहे हैं, इधर सैकड़ों पुस्तकें इस संबंध में प्रकाशित हुई हैं कि आदमी के काम करने की जो क्षमता है। वह तो धीरे-धीरे यंत्रों के हाथ में जा रही है। इस सदी के पूरे होते-होते सारे स्वचालित यंत्र मनुष्य का सारा कर्म कर