Book Title: Tao Upnishad Part 04
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 404
________________ ताओ उपनिषद भाग ४ एकं पश्चिमी वैज्ञानिक डेलगाडो एक अनूठा प्रयोग कर रहा था। उसके प्रयोग कीमती हैं और भविष्य में बहुत कुछ उन प्रयोगों पर निर्भर होगा मनुष्य का जीवन। उस प्रयोग से वह एक बहुत पुराने सत्य पर पहुंचा-जिसका उसे कोई खयाल नहीं है। वह एक प्रयोग कर रहा था कि जब भी किसी के मस्तिष्क के किसी विशेष केंद्र को विद्युत से छुआ जाता है तो खास स्मृतियां अंकुरित होती हैं। मस्तिष्क में कोई सात करोड़ स्नायु हैं और हर स्नायु विशेष स्मृतियों का केंद्र है। उस स्नायु को अगर विद्युत से छुआ जाए, विद्युत की करेंट उसमें डाली जाए, तो वह तत्क्षण सजीव हो उठता है। और उसमें छिपी हुई स्मृतियां जैसे टेप-रेकार्ड से शब्द आने बाहर शुरू हो जाते हैं, ऐसे उस स्नायु में छिपी हुई स्मृतियां मस्तिष्क के पर्दे पर आनी शुरू हो जाती हैं। समझें कि आपके किसी मस्तिष्क के हिस्से को छुआ, और उस हिस्से में बचपन की कोई स्मृति छिपी है कि आप पांच साल के थे, और बगीचे में भाग रहे थे, तितली को पकड़ने की कोशिश में थे, वह स्मृति तत्काल सजग हो जाएगी। और सजग ही नहीं होगी स्मृति की तरह, बल्कि ऐसा लगेगा कि आप फिर पांच साल के हो गए और दौड़ रहे हैं बगीचे में। यह जीवित घटना मालूम होगी, और पूरी स्मृति दोहरेगी। विद्युत अलग कर ली जाए, स्मृति बंद हो जाएगी। फिर विद्युत छुलाई जाए, फिर वहीं से शुरू होगी जहां पहले शुरू हुई थी, ठीक उसी क्रम में। डेलगाडो ने तीन-तीन सौ, छह-छह सौ बार एक ही जगह विद्युत छुला कर देखी है; ठीक स्मृति फिर वहीं से शुरू होती है। जैसे ही विद्युत अलग होती है, स्मृति वापस अपने वर्तुल में बंद हो जाती है; छुलाते से फिर अब स से शुरू होती है। जिन मरीजों पर वह प्रयोग कर रहा था, जो मस्तिष्क के मरीजों पर जिन पर वह यह काम कर रहा था, पहली दफा जब स्मृति जगाई गई तब तो वे भूल ही गए कि वे अलग हैं; वे उस स्मृति के साथ एक हो गए। लेकिन जब दूसरी, तीसरी, दसवीं, पचासवीं बार जगाई गई तो धीरे-धीरे मरीज स्मृति से अलग होने लगा; स्मृति चलने लगी जैसे पर्दे पर फिल्म चलती हो और मरीज साक्षी हो गया। वह दूर हट गया, वह देखने लगा। अब उसे पता है कि विद्युत छुलाई जा रही है और एक स्मृति जग रही है, एक रिकार्डेड स्मृति वापस जग रही है। और वह दूर खड़ा हो गया; अब वह देखने लगा। अब उसे पता है कि इसे मैं देख रहा हूं और मैं अलग हूं। छह सौ या सात सौ बार जिस मरीज को यह प्रयोग करवाया गया, उसे एक बड़े अनूठे आनंद का अनुभव हुआ। डेलगाडो ने लिखा है कि हमारी समझ के बाहर था कि यह आनंद क्यों पैदा हो रहा है! यह आनंद वही है जिसको उपनिषद साक्षी का आनंद कहते हैं; जिसको लाओत्से कह रहा है कि अगर कोई दरवाजे से भी न झांके, खिड़की भी न खोले, तो भी अपने भीतर ही ताओ के राज को जान सकता है। वह साक्षी-भाव धर्म है; हमारी नियति का, हमारी प्रकृति का आत्यंतिक केंद्र है। जिस दिन हम मन को भी दूर खड़े होकर देखने में समर्थ हो जाते हैं, अपने ही मन को ऐसा देखने लगते हैं जैसे किसी और का हो, खुद के ही मस्तिष्क में चलते हुए विचार अपने नहीं मालूम होते, हमारा तादात्म्य टूट जाता है, हम दूर खड़े हो जाते हैं, हमारी उनसे आसक्ति छिन्न-भिन्न हो जाती है, बीच का सेतु बिखर जाता है, हम सिर्फ द्रष्टा हो जाते हैं। जैसे ही कोई व्यक्ति अपने मन का द्रष्टा हो जाता है, स्वर्ग के ताओ का रहस्य उसके सामने खुल जाता है। इसीलिए लाओत्से उसको स्वर्ग का ताओ कह रहा है, क्योंकि वह परम सुख है। स्वर्ग का अर्थ है परम सुख; ऐसा सुख जिसका फिर कोई अंत नहीं। ऐसे महासुख की जो श्रृंखला है वह साक्षी में प्रतिष्ठित होते ही प्रकट हो जाती है। अगर हम मन को समझ लें, हमने संसार को समझ लिया; अगर हम चेतना को समझ लें तो हमने ब्रह्म को समझ लिया। मनुष्य की बूंद में, मनुष्य की छोटी सी बूंद में दोनों छिपे हैं-उसकी परिधि पर संसार, और उसके केंद्र पर ब्रह्म। एक-एक मनुष्य पूरे अस्तित्व की छोटी सी प्रतिकृति है, छोटा सा आणविक प्रतिबिंब है। अगर उसकी परिधि को पहचानें, तो संसार समझ में आ गया; अगर उसके केंद्र को समझ लें तो परमात्मा समझ में आ गया। 394

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