Book Title: Tao Upnishad Part 04
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 406
________________ ताओ उपनिषद भाग ४ 396 सुधार के लिए क्रोध करते मालूम होते हैं। ये जो दोहरे सिद्धांत हैं, सारी बेईमानी इन दोहरेपन में छिपी है, सारा पाखंड इन दोहरेपन में छिपा है। जो मैं सोचता हूं अपने लिए वही मेरा आधार होना चाहिए सबके लिए। और तब, तब जीवन एक दूसरे आयाम में गति करना शुरू कर देता है। मन का ठीक विश्लेषण हो तो मनुष्य का आचरण तत्क्षण बदलना शुरू हो जाता है। क्योंकि उसे कीमिया हाथ लग गई, उसे सूत्र मिल गए कि वह दूसरों के साथ कैसे व्यवहार करे। मन को कोई ठीक से समझ ले तो आदमी नैतिक हो जाता है। नैतिक नास्तिक भी हो सकता है। नैतिक होने के लिए आस्तिक होने की जरूरत नहीं है। नैतिक होने के लिए केवल थोड़ी सी बुद्धि होने की जरूरत है। अनैतिक आदमी बुद्धिहीन । वह गणित ही नहीं समझ रहा है, जीवन के खेल का गणित नहीं समझ रहा है। इसलिए भूल-चूक कर रहा है। नास्तिक भी नैतिक हो जाएगा, अगर मन को ठीक से समझ ले । बट्रेंड रसेल ने लिखा है- बट्रेंड रसेल खुद नास्तिक है— बट्रेंड रसेल ने लिखा है कि दुनिया में नैतिकता लाने के लिए आस्तिकता की कोई जरूरत नहीं है। और उसने ठीक लिखा है। सिर्फ मनुष्य को मन की पूरी शिक्षा देने की जरूरत है। इसके लिए कोई ईश्वरीय सिद्धांत आवश्यक नहीं हैं। इसके लिए तो सिर्फ मन का विश्लेषण काफी है। अगर हम आदमी के मन को साफ-साफ परख लें और उसी परख के अनुसार जीना शुरू कर दें। तो जीवन नैतिक होगा। अनीति अपने आप बंद हो जाएगी। मन का विश्लेषण नैतिकता में ले जाता है, और साक्षी का भाव धर्म में । इसलिए धर्म की शुरुआत मन के पीछे होती है। वह जो मन के पीछे मन को देखने वाला छिपा है, उसकी परख, उसकी पहचान, उसके साथ हमारा संबंध जुड़ जाना हमें धार्मिक बनाता है। धार्मिक होने से किसी के मुसलमान, ईसाई, पारसी, हिंदू, जैन होने का कोई संबंध नहीं है। धार्मिक होने से संबंध है स्वयं के साक्षी से जुड़ जाना, मैं देखने वाला बन जाऊं, द्रष्टा हो जाऊं। मुझमें दूर खड़े होने की क्षमता आ जाए, मैं अनासक्त भाव से अपने मन को देख सकूं। इस देखने में विश्लेषण नहीं करना है, सोच-विचार नहीं करना है, सिर्फ दूर खड़े होकर देखना है। सारे विचार को छोड़ कर, मन में जो भी होता हो उसको देखना है। जैसे रास्ता चलता है और हम किनारे पर खड़े होकर देखते हैं जाते हुए ट्रैफिक को; न तो विचार करते, न सोचते कि कौन अच्छा आदमी जा रहा है, कौन बुरा आदमी जा रहा है; सिर्फ रास्ता चलता है और हम देखते हैं। शायद रास्ते को देखने में तो हमें अच्छे-बुरे का खयाल भी आ जाए। आकाश में बादल जा रहे हैं तो हम नीचे लेट कर आकाश में चलते हुए बादलों को देखते हैं। न तो हम कहते यह शुभ है, न कहते अशुभ है। हम कुछ विचार नहीं करते, बस चुपचाप देखते हैं। इस चुपचाप देखने की कला को ही ध्यान कहा गया है। अगर आप मन के संबंध में निर्णय करना बंद कर दें; बुरा विचार हो तो भी न कहें कि बुरा है, अच्छा हो तो भी न कहें अच्छा है। क्योंकि जैसे ही हमने कहा अच्छा, पकड़ने का मन होता है; जैसे ही हमने कहा बुरा, हटाने का मन होता है। तो हम मन के साथ उलझ गए, हम मन के साथ सक्रिय हो गए। द्रष्टा न रहे, कर्ता हो गए। मन के साथ कोई क्रिया न की जाए, सिर्फ बैठ कर मन को देखा जाए –— बिना किसी निंदा के, बिना किसी स्तुति के, बिना किसी मूल्यांकन के – सिर्फ मन को देखा जाए, तो धीरे-धीरे मन और आपके बीच दूरी बढ़ने लगती है, और तब मन अलग और आप अलग हो जाते हैं। यह जो अलग हो जाने का बोध है, यही उस सूत्र में ले जाता है, 'अपनी खिड़कियों के बाहर बिना झांके, कोई स्वर्ग के ताओ को देख सकता है। ' फिर तो आंख भी खोलने की जरूरत नहीं। ये खिड़कियां हैं हमारी, आंख हैं, कान हैं, हाथ हैं, ये ह खिड़कियां हैं। इनको भी खोलने की जरूरत नहीं । इनको भी बंद करके भीतर ही देखा जा सकता है। क्योंकि वह

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