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सर्वाधिक मूल्यवान-स्वयं की बिजता
सुबह-सुबह यह घटना घटी। और बच्चा रोने लगा, उसका रोना बढ़ने लगा। वह भूखा है और उस बच्चे के लिए दूध चाहिए। वह संन्यासी भीख मांगने गया। उस गांव में भिक्षा मिलना अब मुश्किल थी। प्रतिष्ठा खो गई। कोई संन्यासी को तो भिक्षा देता नहीं था, उसकी प्रतिष्ठा को देता था। द्वार उसके मुंह पर बंद कर दिए गए। बच्चे उसके पीछे दौड़ रहे हैं। सारे गांव में हंसी-मजाक चल रहा है। ऐसा कभी भी नहीं हुआ था कि एक संन्यासी एक छोटे बच्चे को लेकर गांव में भीख मांगने निकला हो। फिर उसने उस घर के दरवाजे पर भी जाकर भीख मांगी, जिसकी लड़की का यह बच्चा था। और उसने कहा कि मुझे मत दो, मैं भूखा रह सकता हूं, लेकिन यह बच्चा मर जाएगा।
उस बच्चे की मां को होश आया। वह अपने पिता के चरणों पर गिर पड़ी। और उसने कहा कि मैं झूठ बोली हूं; इस बच्चे के असली बाप को बचाने के लिए मैंने निर्दोष संन्यासी का नाम ले दिया। मैंने यह नहीं सोचा था कि बात यहां तक बढ़ जाएगी। मैंने सोचा था, संन्यासी को परेशान करके, गांव से बाहर करके, आप वापस लौट आएंगे। लेकिन यह बात ज्यादा हो गई। और संन्यासी ने इनकार नहीं किया, इससे और मन में चुभती है बात।
__ बाप नीचे आया, बच्चे को संन्यासी के हाथ से वापस लेने लगा। उस संन्यासी ने पूछा, क्यों? तो उसने कहा, क्षमा करें, यह बच्चा आपका नहीं है। उस संन्यासी ने फिर उतने ही शब्द कहे, इज़ इट सो? क्या ऐसी बात है?
बस इतना ही सुबह भी बोला था वह। और इतना ही बाद में भी बोला। न उसने कहा कि बच्चा मेरा है, न उसने कहा कि बच्चा मेरा नहीं है। जो स्थिति थी, उसके लिए राजी हो गया। ऐसे व्यक्ति की अप्रतिष्ठा नहीं हो सकती। क्योंकि ऐसे व्यक्ति को आप कुछ भी करें, जैसी भी स्थिति होगी, वह उसे पूरी तरह स्वीकार करता है। उसकी स्वीकृति समग्र है।
"संतुष्ट आदमी को अप्रतिष्ठा नहीं मिलती।'
इससे उलटा भी सही है। असंतुष्ट आदमी कभी प्रतिष्ठित नहीं होता। उसे कुछ भी मिल जाए, वह कुछ भी पा ले, उसकी भूख जरा भी कम नहीं होती, उसकी प्यास घटती नहीं, उसकी तृषा का कोई अंत नहीं है। उसकी तृष्णा
दुष्पूर है।
'जो जानता है कहां रुकना है, उसे कोई खतरा नहीं है।'
और संतुष्ट आदमी का जीवन-सूत्र यह है कि वह जानता है कहां रुकना है। उसे फिर कोई खतरा नहीं है। संतुष्ट आदमी जानता है कहां रुकना है। आवश्यकता उसकी सीमा है।
आवश्यकता हमारी सीमा नहीं है। आप भोजन करने बैठे हैं; आपको कुछ भी पक्का पता नहीं चलता, कहां रुकना है। शरीर की कितनी जरूरत है, उससे आप भोजन नहीं करते; स्वाद की कितनी मांग है, उससे भोजन चलता है। स्वाद का कोई अंत नहीं है, स्वाद की कोई सीमा नहीं है। और स्वाद पेट से पूछता ही नहीं कि कहां रुकना है। स्वाद पागल है, उस पर कोई नियंत्रण नहीं है।
आवश्यकताएं जरूरी हैं, वासनाएं जरूरी नहीं हैं। आवश्यकता और वासना में इतना ही फर्क है। आवश्यकता उस सीमा का नाम है जितना जीवन के लिए-श्वास चले, शरीर चले, और खोज चलती रहे आत्मा की-उतने के लिए जो काफी है। उससे ज्यादा विक्षिप्तता है। उससे ज्यादा का कोई अर्थ नहीं है। फिर उस दौड़ का कोई अंत भी नहीं हो सकता। आवश्यकता की तो सीमा आ सकती है, लेकिन वासना की कोई सीमा नहीं आ सकती। सीमा का कोई कारण ही नहीं, क्योंकि वह मन का खेल है। कहां रुकें? मन कहीं भी नहीं रुकता।
लाओत्से कहता है, 'जो जानता है कहां रुकना है, उसे कोई खतरा नहीं है।'
खतरा उसी जगह शुरू होता है जहां हमें पता नहीं चलता, कहां रुकें। धनपतियों को देखें। धन उस जगह पहुंच गया है जहां उन्हें अब उसकी कोई भी जरूरत नहीं है, लेकिन रुक नहीं सकते। शायद अब उनके पास जो धन
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