Book Title: Tao Upnishad Part 04
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 352
________________ ताओ उपनिषद भाग ४ है उससे वे कुछ खरीद भी नहीं सकते। क्योंकि जो भी खरीदा जा सकता था वे खरीद चुके। अब धन का उनके लिए कोई भी मूल्य नहीं है। धन का मूल्य कम होता जाता है, जैसे-जैसे धन बढ़ता है। आपके पास एक लाख रुपए हैं तो मूल्य ज्यादा है, एक करोड़ होंगे तो मूल्य कम हो जाएगा। क्योंकि अब आप कम चीजें खरीद सकते हैं; चीजें नहीं बचतीं जिनको आप खरीदें। फिर दस करोड़ हो जाते हैं तो धन बिलकुल फिजूल होने लगता है। फिर दस अरब हो जाते हैं। तो दस अरब के ऊपर जो धन आप इकट्ठा कर रहे हैं, वह बिलकुल कागज है। उसका कोई भी मूल्य नहीं है। क्योंकि उस धन का मूल्य ही है कि उससे कुछ खरीदा जा सके। अब आपके पास खरीदने को भी कुछ नहीं है। जमीन के पास आपको बेचने को कुछ नहीं है। मगर दौड़ जारी रहती है। वह मन दौड़ता चला जाता है। वह किसी आवश्यकता को, किसी सीमा को नहीं मानता। मन विक्षिप्त है। ___'जो जानता है कहां रुकना है, उसे कोई खतरा नहीं है।' खतरा तो वहीं आता है जब हमें रुकने के संकेत सुनाई नहीं पड़ते, और हम बढ़ते ही चले जाते हैं। जरूरत पूरी हो जाती है और हम बढ़ते चले जाते हैं। खतरे का मतलब यह है कि अब हम खो गए पागलपन में, अब इससे लौटना बहुत मुश्किल हो जाएगा। और अगर आप लौटना चाहेंगे तो आपको खोजना पड़ेगा वह स्थान जहां आपकी . आवश्यकता समाप्त हो गई थी, फिर भी आप दौड़ते चले गए। अपनी आवश्यकता पर लौट आना संन्यास है। अपनी आवश्यकता को भूल कर बढ़ते चले जाना संसार है। 'जो जानता है कहां रुकना है, उसे कोई खतरा नहीं है। वह दीर्घजीवी हो सकता है।' उसका यह छोटा सा जीवन भी फिर छोटा नहीं है; उसका यह छोटा सा जीवन भी काफी है। इस छोटे से जीवन में भी वह वह सब जान सकता है जिसके लिए जीवन अवसर है। इस शरीर के साथ जो थोड़े से दिनों का संबंध है, इस संबंध में वह उस सबको पहचान लेगा जो अमृत है, जिसकी कोई मृत्यु नहीं है। लेकिन यह वही आदमी कर पाएगा, यह दीर्घ जीवन उसका ही हो पाएगा, जो आवश्यकता पर रुक गया। और जो आवश्यकता पर नहीं रुका, उसका तो जीवन अल्प है। क्योंकि वासनाएं इतनी हैं, और समय इतना कम है। अरबों तक दौड़ है मन की और जीवन छोटा है। और यह जीवन इस दौड़ में ही व्यय हो जाता है। जीवन काफी है। इसे अगर ठीक से समझें तो एक सौ साल का जीवन पर्याप्त जीवन हो सकता है। सत्तर साल का जीवन बहुत है। उससे ज्यादा की कोई जरूरत नहीं है। अगर कोई व्यक्ति सम्यकरूपेण चले, सीमा पर रुकना जाने, व्यर्थ के साथ न दौड़े, आवश्यक पर ठहर जाए और संतुष्ट हो, तो सत्तर साल का जीवन काफी है। कोई सात करोड़ जन्म लेकर मुक्त होने की जरूरत नहीं है। नहीं तो सात करोड़ जन्म भी कम हैं। क्योंकि हर बार वही दौड़ शुरू हो जाती है। जो करने योग्य है वह हो ही नहीं पाता और जो न करने योग्य है उसमें जीवन व्यर्थ हो जाता है। जो सार है वह हाथ में आ ही नहीं पाता और असार में हम दौड़ कर समाप्त हो जाते हैं। एक यूनानी कथा मैंने सुनी है। एक बहुत तेज दौड़ने वाला देवता था। उसकी जैसी गति किसी की भी नहीं थी। और एक दूसरे देवता से शर्तबंदी हो गई। उस दूसरे देवता ने कहा कि तुम मेरे मुकाबले दौड़ न पाओगे। दूसरा देवता होशियार था, और जीवन के कुछ सूत्रों को जानता था। वह पहला देवता हंसा, और उसने कहा कि मुझसे तेज दौड़ने वाला कोई है ही नहीं। दौड़ हुई। दूसरे देवता ने एक काम किया। उसने रास्ते पर, जहां यह प्रतियोगिता होने वाली थी, सोने की ईंटें पूरे रास्ते पर डाल दीं। दौड़ शुरू हुई। पहला देवता जानता है कि दुनिया में कोई उससे तेज दौड़ने वाला नहीं है। और जब उसे सोने की ईंटें चारों तरफ पड़ी दिखाई पड़ने लगी तो उसने कहा कि थोड़ी ईंटें उठा लेने में हर्ज नहीं है, और फिर मैं कभी भी मिला लूंगा। एक ईंट उठाई, तब तक दूसरा देवता आगे निकल गया। पर उसने फिर उसे पार कर लिया। 342

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