Book Title: Tao Upnishad Part 04
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 392
________________ ताओ उपनिषद भाग ४ भयभीत होती हैं कि कहीं एक्सीडेंट न हो जाए, कहीं कार न टकरा जाए। मनोवैज्ञानिक कहते हैं, इस भय का भी कारण यही है कि उनके मन में कहीं पति को मारने का कोई रस छिपा हुआ है, कि पति मर जाए तो छुटकारा हो जाए। और स्वाभाविक है कि जैसे पति और पत्नियां हैं, इसमें मरने में छुटकारा दिखाई पड़ता हो। पर बीस साल पहले पत्नी को छोड़ कर चला गया संन्यासी, उसको लगता है झंझट मिटी, तो लगता है मालकियत कायम थी। और ध्यान रहे, जिसकी हम मालकियत करते हैं वह भी हम पर मालकियत करता है। यह जो पजेशन है, स्वामित्व है, यह एकतरफा कभी नहीं होता। पति कितना ही सोचता हो कि वह स्वामी है, और स्त्रियां बहुत होशियार हैं, वे सदा से कहती रही हैं कि स्वामी तुम्ही हो, लेकिन सभी जानते हैं कि सौ में निन्यानबे मौकों पर स्त्रियां मालिक होती हैं, पति केवल नाम मात्र के स्वामी होते हैं। एक बड़ी मीठी, बड़ी पुरानी प्रसिद्ध कथा है। एक सम्राट के दरबार में ऐसा दरबारियों में विवाद उठ गया है, और बात चल पड़ी है कि कितने दरबारी अपनी पत्नियों से डरते हैं, कितने दरबारी अपनी पत्नियों के गुलाम हैं। कोई भी इसको स्वीकार करने को राजी नहीं है। लेकिन सम्राट ने कहा कि मैं जानता हूं, अपने अनुभव से भी जानता हूं कि यह संभव नहीं है कि यहां जितने लोग हैं, ये सभी कह रहे हैं कि कोई भी अपनी पत्नी से नहीं डरते। ध्यान रहे, अगर कोई भी झूठ बोला तो गर्दन उतरवा दूंगा। और कल सब अपनी पत्नियों सहित आ जाएं। जब पत्नियां भी दरबार में आ गईं तो मुश्किल खड़ी हो गई। और सम्राट ने कहा कि कतार लगा लो; जो लोग अपनी पत्नियों से डरते हैं, एक तरफ, बाईं तरफ, और जो अपनी पत्नियों से नहीं डरते वे दाईं तरफ खड़े ह्ये जाएं। सारे दरबारी बाईं तरफ खड़े हो गए, सिर्फ एक आदमी को छोड़ कर। वह एक आदमी खड़ा था अकेला उस पंक्ति में जहां पत्नी से नहीं डरने वाले खड़े हैं। सम्राट ने कहा, फिर भी धन्यभाग, कम से कम एक दरबारी तो ऐसा है। तुम क्यों यहां खड़े हो? उसने कहा, जब मैं चलने लगा घर से, पत्नी ने कहा कि भीड़-भाड़ में खड़े मत होना। उधर बहुत भीड़ है। " लेकिन स्त्रियों की मालकियत और ढंग की है, क्योंकि स्त्रियों की मनस-व्यवस्था और ढंग की है। उनकी मालकियत पैसिव है, आक्रामक नहीं है। उनकी मालकियत ज्यादा जटिल और सूक्ष्म है। पति की मालकियत सिर्फ दिखावा है, और एक तरह का गहरा समझौता है भीतर कि जब बाहर रहो घर के तो तुम अकड़ कर चलना, और बाहर यह बात स्वीकार की जाएगी कि तुम मालिक हो और जैसे ही घर के भीतर प्रवेश करो तुम अपनी अकड़ बाहर रख आना। निश्चित ही, जब भी हम किसी के मालिक बनते हैं तो हम गुलाम भी हो जाते हैं। क्योंकि दूसरा भी हमसे इसीलिए जुड़ा है कि वह भी मालिक बनना चाहता है। मालिक बनने के ढंग अलग-अलग हैं। पति की मालकियत धमकी, मार-पीट सब पर निर्भर है। पत्नी की मालकियत रोने पर, चीखने पर, चिल्लाने पर, परेशान होने पर निर्भर है। वह खुद को इतना दुखी कर लेगी कि हरा देगी। पति उसको चोट पहुंचा कर मालकियत करता है। वह अपने को चोट पहुंचा कर भी मालकियत करती है। पत्नी का मालकियत का ढंग अहिंसावादी है; उपवास कर लेगी, रोएगी। पति का हिंसक है। पर फर्क नहीं है। और दोनों की तलाश स्वामित्व की तलाश है। जब तक हम स्वामित्व की खोज कर रहे हैं तब तक हम गुलाम भी रहेंगे। और जैसे ही कोई यह खोज छोड़ देता है, उसकी गुलामी भी मिट जाती है। न वह किसी का गुलाम रह जाता है और न किसी को गुलाम बनाता है। तब अचानक भीतर के स्वामित्व का पता चलता है। तब भीतर का स्वामी सारी धुंध के बाहर आ जाता है; कोहरा छंट जाता है। वह दौड़ जो महत्वाकांक्षा की थी, उसके हटते ही धुआं हट जाता है, और लपट स्वामित्व की प्रकट हो जाती है। वही पुण्य है; स्वयं की मालकियत को उपलब्ध हो जाना पुण्य है। और दूसरे की मालकियत की कोशिश पाप है। 382

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