Book Title: Tao Upnishad Part 04
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 382
________________ ताओ उपनिषद भाग ४ नहीं है। लोमड़ी ने पूरी कोशिश की है कि अंगूरों को पा ले। अंगूर दूर हैं, और पाने का कोई उपाय नहीं। और लोमड़ी यह भी मानने को तैयार नहीं कि मैं कमजोर हूं, मेरी छलांग छोटी है। और दूसरों को यह पता चले कि मैं हार गई, यह भी अहंकार को चोट पहुंचाने वाली बात है। तो लोमड़ी कहती है कि अंगूर खट्टे हैं। वह इसलिए कह रही है कि अंगूर खट्टे हैं ताकि अपने को भी समझा ले, दूसरों को भी समझा दे कि ऐसा नहीं है कि मैं पाना चाहती तो न पा सकती थी; मैं पा सकती थी। लेकिन अंगूर खट्टे हैं, पाने योग्य नहीं। यह लोमड़ी संतोष करके वापस लौट रही है। यह संतोष सांत्वना है, कंसोलेशन है। यह चालाक चित्त का उपाय है। - हमारा संतोष ऐसा ही संतोष है। हम सब उपाय करते हैं; तभी तो इस मित्र ने कहा कि मैं सदा से संतोष कर रहा हूं, लेकिन सुख तो मिला नहीं। सुख मिलना चाहिए, इसके सब उपाय कर रहा है वह। सुख नहीं मिल रहा है तो अपने को समझा रहा है कि मैं संतोषी आदमी हूं, और तब संतोष के माध्यम से सुख पाने की कोशिश कर रहा है। संतोष के माध्यम से कोई सुख पाने का सवाल नहीं है; संतोष सुख है। संतोष का मतलब यह कि हमने दुख को अस्वीकार करना छोड़ दिया, और हमने सुख की मांग छोड़ दी। हमें जो मिल जाता है वही हमारी नियति है, वही हमारा भाग्य है; उससे ज्यादा की हमारी आकांक्षा नहीं है। उससे ज्यादा के लिए हमारी कोई दौड़ भी नहीं है। ऐसे क्षण में जो भीतर एक संगीत बजने लगता है जब कोई मांग नहीं, कोई आकांक्षा नहीं, कोई दौड़ नहीं, तो भीतर जो शांति का संगीत बजने लगता है उसका नाम संतोष है। इस संतोष का जिसे भी अनुभव हो जाए, क्या वह कभी भी कह सकता है कि मुझे सुख नहीं मिला? क्योंकि इस संतोष के अतिरिक्त और सुख होगा क्या! पूरब ने संतोष को ढाल बना लिया और अपनी कमजोरी और कायरता उसमें छिपा ली। संतोष केवल उनके लिए है जो शक्तिशाली हैं। कमजोरों के लिए सांत्वना है। पर वे सांत्वना को संतोष कहते हैं। और तब शब्दों के कारण बड़ी उलझन हो जाती है। लाओत्से के इस सत्र को समझना। उसके पहले एक बात और खयाल में ले लेनी जरूरी है। जो आदमी । सेतुष्ट है वह महत्वाकाक्षी नहीं हो सकता, ऐबीशस नहीं हो सकता। कुछ भी पाने का लक्ष्य-वह चाहे मोक्ष ही क्यों न हो, परमात्मा क्यों न हो, आत्मज्ञान क्यों न हो, ध्यान और समाधि क्यों न हो-कुछ भी पाने का लक्ष्य संतोषी व्यक्ति को नहीं हो सकता। और बड़े मजे की बात तो यह है कि महत्वाकांक्षी दौड़ता है, दौड़ता है सदा, पहुंचता कभी नहीं, और संतुष्ट व्यक्तित्व दौड़ता नहीं और पहुंच जाता है। क्योंकि अगर मैं इतना संतुष्ट हूं कि मैं कुछ भी नहीं मांगता तो ध्यान मुझसे कितनी देर बचेगा? अशांत होने का उपाय नहीं है तो शांत होने की विधि की क्या जरूरत है? विधियां तो तब जरूरी हैं जब बीमारियां हों। पहले हम बीमारी पैदा करते हैं, फिर हम विधि की खोज करते हैं। लाओत्से कह रहा है, बीमारी पैदा करने की कोई जरूरत नहीं। . इसलिए लाओत्से का प्रसिद्ध सूत्र है कि जब जगत में ताओ था तो धर्म नहीं था, धर्म-उपदेशक नहीं थे, धर्मगुरु नहीं थे। जब जगत से ताओ नष्ट हो जाता है, स्वभाव खो जाता है, तब धर्म का जन्म होता है। सीधी बात है। क्योंकि धर्म औषधि है। पहले बीमारी चाहिए, बीमारी के पीछे फिर डाक्टर प्रवेश करता है। फिर हम डाक्टर के बड़े अनुगृहीत होते हैं। लाओत्से का जोर चिकित्सा पर नहीं है। पहले बीमारी पैदा करो, फिर इलाज करो, इस पर उसका जोर नहीं है। लाओत्से का जोर है, बीमारी पैदा मत करो। और बीमारी हमारी पैदा की हुई है। फिर हजारों औषधियां पैदा होती हैं। बीमारी को ठीक करने के लिए हजारों औषधियां अस्तित्व में आती हैं। और फिर औषधियों के रिएक्शंस हैं, फिर औषधियों से पैदा हुई बीमारियां हैं। और उनका फिर कोई सिलसिले का अंत नहीं है। फिर चिकित्सक जो कर सकता है इलाज जिस बीमारी का, उसी बीमारी को खोजता है। इधर मेरा अनुभव यही है। आपकी तकलीफ क्या है, चिकित्सक को इससे कम संबंध है। 372

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