Book Title: Tao Upnishad Part 04
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 386
________________ ताओ उपनिषद भाग ४ युद्ध चलता रहा। वे सात सौ वर्ष भी इकट्ठे नहीं; कभी एक दिन, कभी दो दिन, कभी दस दिन। अन्यथा जमीन पर कहीं न कहीं युद्ध चलता ही रहा है। युद्ध कोई आकस्मिक घटना नहीं मालूम होती। आदमी के जीने का ढंग कुछ ऐसा बुनियादी रूप से गलत है कि उसको युद्ध की जरूरत पड़ जाती है। हर दस साल में एक बड़ा युद्ध चाहिए। शायद हम इतना क्रोध इकट्ठा कर लेते हैं, इतनी घृणा और इतनी हिंसा भर जाती है, इतनी मवाद पैदा हो जाती है हमारे भीतर, उसका कोई निकास चाहिए। उस गंदगी को फेंकने के लिए कोई सामूहिक आयोजन चाहिए। युद्ध वैसा सामूहिक आयोजन है। युद्ध के बाद हलकापन आ जाता है, जैसे तूफान के बाद थोड़ी शांति आ जाती है। लाओत्से के हिसाब से-मेरी समझ से भी दुनिया से तब तक युद्ध नहीं मिटाए जा सकते जब तक आदमी को स्वभाव के अनुकूल नहीं लाया जाता। चाहे बर्टेड रसेल लाख उपाय करें, चाहे दुनिया के सारे शांतिवादी शांति के लिए युद्ध ही करने में क्यों न लग जाएं, लेकिन युद्धों से आदमी को मुक्त नहीं किया जा सकता। आदमी को उसके स्वभाव में प्रतिष्ठा चाहिए। इसे थोड़ा देखें। जब आप सुखी होते हैं तो लड़ने का मन नहीं होता। जब आप सुखी होते हैं तो आप लड़ने का सोच भी नहीं सकते। जब आप सुखी होते हैं, कोई आपको उकसाए भी, तो भी आप हंस कर टाल देते हैं। आप हंस सकते हैं। कोई उकसा भी रहा हो लड़ने के लिए तो भी आप उपेक्षा कर सकते हैं। लेकिन जब आप दुखी हों तब आप प्रतीक्षा करते हैं कि कोई जरा सा उकसाए। आपकी बारूद तैयार है, कोई जरा सी चिनगारी चाहिए। अगर चिनगारी न भी मिले तो आप कोई कल्पित चिनगारी से भी विस्फोट पैदा कर सकते हैं। यह अपने जीवन में आप देखें तो आपको खयाल में आ जाएगा। एक ही परिस्थिति में कभी आप लड़ने को तैयार हो जाते हैं और कभी आप हंसते रहते हैं। परिस्थिति एक ही होती है; आपकी भीतर की वृत्ति और मनोवेग भिन्न होता है। कल भी पति ने यही कहा था पत्नी को, कोई कलह पैदा नहीं हुई थी; आज वही कहने से कलह पैदा हो गई। कल पत्नी प्रसन्न रही होगी; उसकी प्रसन्नता लड़ने को तैयार नहीं थी। प्रसन्नता टाल सकती है, क्षमा कर सकती है, भूल सकती है। लेकिन आज पत्नी प्रसन्न नहीं है। आज वही बात चिनगारी बन सकती है। जापान में एक बहुत बड़ी, टोकियो की एक बड़ी कंपनी ने, जो कारें बनाने का काम करती है, अपने दरवाजे पर मालिक की और जनरल मैनेजर की दो प्रतिमाएं खड़ी कर रखी हैं-फैक्टरी के बाहर। यह आज नहीं कल सभी फैक्टरी के बाहर करने जैसा होगा। जब भी कोई नाराज हो तो जाकर मालिक को जूते मार सकता है, गाली दे सकता है। वे प्रतिमाएं बाहर खड़ी हैं। वे इसीलिए खड़ी की गई हैं। मनोवैज्ञानिक उस फैक्टरी का अध्ययन कर रहे हैं। और उनका कहना है कि उस फैक्टरी के मजदूर, काम करने वाले लोग अति प्रसन्न हैं और दिन में अनेक बार लोग जाकर उन प्रतिमाओं पर क्रोध निकाल कर आ जाते हैं और हलके हो जाते हैं। आप भी जब एक-दूसरे पर क्रोध निकाल रहे हैं तो दूसरे से कोई संबंध नहीं है, दूसरा प्रतिमा से ज्यादा नहीं है। इसलिए अगर आप बुद्धिमान हों, तो जब कोई आप पर क्रोध निकाल रहा हो तो आपको परेशान होने की कोई जरूरत नहीं है। आपसे उसका कोई संबंध ही नहीं है। आप सिर्फ एक प्रतिमा हैं, एक बहाना हैं। और आपको खुश होना चाहिए कि आपको दूसरे आदमी का क्रोध निकालने का एक अवसर मिला। उसका क्रोध हलका हो गया, वह शांत हो गया। लेकिन इतनी हममें समझ नहीं है। दूसरा भी उबल पड़ता है। और दूसरा भी इसलिए उबल पड़ता है कि उसके भी बहुत से उबाल भीतर भरे हैं। हर आदमी सुलगा हुआ है। और इसलिए किसी भी आदमी के साथ रहना सुविधापूर्ण नहीं है। कितना ही आपका लगाव हो और कितना ही प्रेम हो, दो व्यक्ति पास रहते हैं तो सिवाय कलह के कुछ भी पैदा नहीं होता। कारण दूसरा नहीं है; कारण भीतर अपने स्वभाव से च्युत हो जाना है। 376

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