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ताओ उपनिषद भाग ४
तो सुख और दुख बाहर की घटनाएं नहीं, मेरी स्वीकृतियां और अस्वीकृतियां हैं। और अगर कोई मनुष्य इस कला को सीख ले कि ऐसा कुछ भी न बचे जो उसे अस्वीकार हो तो हम उसे दुख कैसे दे सकेंगे? सारा संसार मिल कर भी उसे दुखी नहीं कर सकता। उसका सुख खंडित करना असंभव है। और हम जैसे हैं, हमें सुखी करना असंभव है। हमारे दुख को मिटाना बिलकुल असंभव है। क्योंकि हम अस्वीकार की कला में इतने पारंगत हैं। जो भी हमें मिले, हम उसे अस्वीकार करना जानते हैं; जो भी हमें मिल जाए, मिलते ही हमारा मन उसके विरोध से भर जाता है।
लाओत्से स्वीकृति का पोषक है, तथाता का। कैसी भी हो स्थिति, स्वीकार करते ही उसका गुण बदल जाता है। अब ध्यान रहे, यह बेशर्त बात है; कैसी भी हो स्थिति, स्वीकार करते ही उसका गुण बदल जाता है। कितना ही गहन दुख हो, बीमारी हो, पीड़ा हो, मृत्यु आ रही हो, अगर आप स्वीकार कर सकते हैं, तत्क्षण गुणधर्म बदल जाता है। मृत्यु भी मित्र बन जाएगी। मृत्यु भी एक द्वार बन जाएगी जो अनंत की तरफ खुल रहा है। मृत्यु में भी तब वह नहीं दिखाई पड़ेगा जो छूट रहा है, बल्कि वह दिखाई पड़ेगा जो उपलब्ध हो रहा है। लेकिन अस्वीकार अगर हो तो मृत्यु तो दुख होगी ही, जीवन भी दुख होगा।
प्रतिपल कुछ छूट रहा है, कुछ मिल रहा है, कुछ आ रहा है, कुछ जा रहा है। अगर हमें वही दिखाई पड़ता है । जो जा रहा है तो दुख होगा; अगर वह भी दिखाई पड़े जो आ रहा है तो सुख होगा। और हम जहां भी खड़े हों, उसके आगे भी जगह हैं। कितना ही धन हमारे पास हो, उससे ज्यादा धन हो सकता है।
एक बहुत बड़े मनसविद कार्ल गुस्ताव जुंग ने अपने संस्मरणों में एक बड़ी महत्वपूर्ण बात लिखी है। उसने लिखा है कि मनुष्य के सारे दुखों का कारण मनुष्य की कल्पना की शक्ति है। कोई पशु दुखी नहीं है, क्योंकि कोई पशु कल्पना नहीं कर सकता। कल्पना की शक्ति मनुष्य के बड़े से बड़े दुख का कारण है। क्यों? क्योंकि मनुष्य जिस हालत में भी हो, उससे बेहतर की कल्पना कर सकता है।
एक सुंदर स्त्री आपको पत्नी की तरह मिल जाए, प्रेयसी की तरह मिल जाए, लेकिन ऐसा आदमी खोजना कठिन है जो उससे सुंदर स्त्री की कल्पना न कर सके। और अगर आप अपनी पत्नी से सुंदर स्त्री की कल्पना भी कर सकते हैं तो दुखी हो गए। यह पत्नी व्यर्थ हो गई। कितना ही सुंदर महल हो, आप उससे बेहतर महल की कल्पना तो कर ही सकते हैं; न भी बना सकें। बस उस कल्पना के साथ ही तुलना शुरू हो गई। और महल झोपड़े से बदतर हो गया। जब बेहतर कुछ हो सकता हो तो जो भी हमारे पास है वह गैर-बेहतर हो गया।
कल्पना की शक्ति मनुष्य के दुख का भी कारण है, उसकी सृजनात्मकता का, उसकी क्रिएटिविटी का भी। कोई पशु सृजन नहीं करता। पशु एक पुनरावृत्ति में जीते हैं। लाखों वर्ष तक उनकी पीढ़ी दर पीढ़ी एक ही ढंग का जीवन व्यतीत करती है। आदमी नए की खोज करता है, नए का सृजन करता है। कल्पना के कारण वह देख पाता है : कुछ बदलाहट की जा सकती है, कुछ बेहतर बनाया जा सकता है। लेकिन जिस शक्ति से सजनात्मकता पैदा होती है उसी शक्ति से मनुष्य का दुख भी पैदा होता है।
इसलिए बड़े हैरान होंगे आप जान कर कि सृजनात्मक लोग सर्वाधिक दुखी होते हैं। जो व्यक्ति भी क्रिएटिव है, कुछ सजन कर सकता है-चित्रकार हैं, मूर्तिकार हैं, वैज्ञानिक हैं, कवि हैं, बहुत दुखी होते हैं। क्योंकि किसी भी स्थिति में उन्हें अंत नहीं मालूम हो सकता; उस स्थिति से बेहतर हो सकता है। और जब तक वे बेहतर को न पा लें तब तक दुखी होंगे। और ऐसी कोई अवस्था नहीं हो सकती जिससे बेहतर की कल्पना न की जा सके।
पशु आदमी से ज्यादा सुखी मालूम पड़ते हैं, क्योंकि वे जहां हैं वही उनका अस्तित्व है। उससे बेहतर न सोच सकते हैं, न सपना देख सकते हैं; तुलना भी नहीं कर सकते। मनुष्य की कल्पना की क्षमता उसे भविष्य में ले जाती है। और जब मन भविष्य में चला जाता है तो वर्तमान से हमारे संबंध टूट जाते हैं और वर्तमान ही जीवन है।
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