________________
ताओ उपनिषद भाग ४
लाओत्से कहता है, 'श्रेष्ठतम पूर्णता अपूर्णता के समान है।'
लाओत्से के लिए अड़चन नहीं है। लाओत्से कहता है कि जब पूर्णता पूर्ण होती है तब भी विकसित होती है; वैसी ही विकसित होती है जैसी अपूर्णता में विकास होता है। समझने में कठिनाई होगी, क्योंकि यहां तर्क बहुत काम नहीं देगा। यह हिसाब गणित के बाहर हो गया। यह हिसाब वही है जो उपनिषदों ने कहा है। ईशावास्य ने कहा है कि उससे पूर्ण भी निकाल लो तो भी पीछे पूर्ण ही शेष रह जाता है। यह गणित के बाहर है। क्योंकि गणित का तो सीधा नियम है कि अगर आप कुछ भी निकाल लेंगे तो जितना था उससे कम हो जाएगा, और अगर पूर्ण ही निकाल लेंगे तो पीछे शून्य रह जाएगा, कुछ भी नहीं बचेगा। लेकिन ईशावास्य कहता है, उस पूर्ण से पूर्ण को भी निकाल लो-थोड़ा निकालने में तो कोई डर ही नहीं है, पूर्ण भी निकाल लो-तो भी पूर्ण ही पीछे शेष रहता है। यह बात गणित के बाहर की हो गई। तर्क इसे सिद्ध न कर पाएगा। लेकिन अनुभव इसे सिद्ध करता है।
हमारे अनुभव में प्रेम एक तत्व है जिसे हम पहचान सकते हैं, जो गणित के बाहर है। आप कितना ही प्रेम अपने बाहर निकाल दो, कितना ही प्रेम लोगों को बांट दो, इससे आपके भीतर प्रेम में रत्ती भर भी कमी नहीं होगी। या कि कमी हो जाएगी? गणित के हिसाब से तो कमी होनी चाहिए, क्योंकि जो भी बाहर निकाल दिया उतना घट . जाएगा। लेकिन अनुभव कहता है कि प्रेम घटता नहीं, जितना करो उतना बढ़ता है।
तो एक तो तर्क का जगत है, जहां जोड़ने से चीजें बढ़ती हैं, घटाने से घटती हैं। एक प्रेम का भी, काव्य का और हृदय का जगत है, जहां घटाने से भी चीजें घटती नहीं, विपरीत बढ़ती भी हैं, और जहां रोकने से घटती हैं। अगर कोई व्यक्ति अपने प्रेम को रोके तो सड़ जाए; थोड़े दिन में पाएगा कि प्रेम तिरोहित हो गया, नहीं बचा। प्रेम तो जितना बांटा जाए उतना ही बढ़ता है।
लाओत्से कहता है, 'श्रेष्ठतम पूर्णता अपूर्णता के समान है।'
अपूर्णता का एक ही लक्षण है कि वह विकासमान है, डायनामिक है, गतिमान है, बहती है, आगे बढ़ती है। इस जगत की जो पूर्णता है वह भी आगे बढ़ने वाली पूर्णता है—पूर्णता से और पूर्णता की ओर, और सदा पूर्णता से
और पूर्णता की ओर। तब परमात्मा पूर्ण भी हो सकता है और विकासमान भी हो सकता है। और जब तक वह दोनों न हो तब तक परमात्मा की धारणा जगत को समझाने में सहयोगी नहीं हो सकती।
इसे हम जीवन के और पहलुओं से समझने की कोशिश करें। क्योंकि परमात्मा को हम जानते नहीं हैं; उससे हमारा सीधा कोई परिचय नहीं है। इसलिए सीधा उसको समझना भी आसान नहीं है। किन्हीं और पहलुओं से देखें, जहां पूर्णता अपूर्णता के समान होती है। बड़े चित्रकार कहते हैं कि जब कोई संपूर्ण रूप से चित्रकला में पारंगत हो जाता है तो वह बच्चों की तरह चित्र बनाने लगता है। पिकासो के चित्र देखें। इस सदी में ही नहीं, मनुष्य-जाति के पूरे इतिहास में वैसी सधी हुई अंगुलियां, वैसा चित्रकार खोजना मुश्किल है। लेकिन उसके चित्र बच्चों जैसे हैं। छोटे बच्चे जैसा बनाएंगे वैसा पिकासो बनाता है। और आप सोचते होंगे कि कोशिश करें तो आप भी बना सकते हैं! आप न बना सकेंगे। जो लोग चित्रों की नकल करने का धंधा करते हैं, वे बड़े से बड़े चित्रकार के चित्रों की नकल कर लेते हैं; लेकिन पिकासो के चित्रों की नकल बहुत मुश्किल है। क्योंकि वे इतने सरल हैं, उनकी नकल बहुत मुश्किल है। जटिल चित्रों की नकल की जा सकती है; सरल चित्रों की नकल बहुत मुश्किल है। पिकासो ऐसे बनाता है जैसे बनाना जानता ही नहीं। चित्रकला तभी पूरी होती है कि जो भी आपने सीखा हो जब आप भूल जाएं।
जापान में, चीन में, जहां चित्रकला को ध्यान के लिए उपयोग में लाया गया, और जहां ध्यान को खोजने के लिए बहुत तरह के आयामों में चित्रकला भी एक आयाम बनी, वहां झेन गुरु जब किसी को चित्रकला सिखाता है तो दस या बारह साल साधना चलती है। फिर कुछ वर्षों के लिए, वह कहता है, फेंक दो तूलिका, फेंक दो रंग और भूल
|350