Book Title: Tao Upnishad Part 04
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 368
________________ ताओ उपनिषद भाग ४ 358 यह जो हमारा जगत है, जहां तिरछा चलना ही सीधा चलना हो गया है। और जहां हम सिखाते ही हैं सिर्फ एक बात कि कुशलता से चलो; कितने ही तिरछे चलो, लेकिन मंजिल पर पहुंचने का ध्यान रखो, कहीं से भी जाओ, येन केन प्रकारेण, कैसे भी । तुमसे कोई नहीं पूछेगा कि तुम कैसे पद तक पहुंचे। तुम धन तक कैसे पहुंचे, तुमसे कोई नहीं पूछने वाला है । न पहुंच पाए तो तुम मुसीबत में पड़ोगे। तब हरेक जानता है कि तुम बेईमान हो। अगर तुम सफल हो गए तो सफलता सारे पाप को धो देती है। तो सिर्फ एक पाप है, वह है असफलता । सब पाप करो, सफल भर हो जाना। तो जिंदगी के आखिर में तुम्हें कोई बुरा कहने को नहीं मिलेगा । और तुम कितना ही ठीक चलो, अगर असफल हो गए, तो लोग जानते हैं कि तुम बुरे हो। असफलता, सफलता, इनसे सब तौला जा रहा है। हमारे बीच अगर कोई आदमी सीधा हो तो कठिनाई में पड़ेगा। या तो मूढ़ मालूम पड़ेगा, बुद्ध मालूम पड़ेगा। और हम उसे सुधारने की कोशिश करेंगे। और अक्सर हम सफल हो जाते हैं। लेकिन अगर कोई जिद्दी हुआ - कोई जीसस और बुद्ध जैसा हुआ कि लगा ही रहा पीछे और नहीं माना उसने हमारा—तो आखिर में हम उसको पूजा देते हैं। लेकिन तब भी हम जानते हैं कि तुम हमारे जगत के हिस्से नहीं हो; तुम अपवाद हो, तुम कोई नियम नहीं हो। तुम्हें मान कर नहीं चला जा सकता। 'जो सर्वाधिक सीधा है, वह टेढ़ा-मेढ़ा दिखाई देता है। सर्वश्रेष्ठ कौशल अनाड़ीपन जैसा मालूम होता है।' जो कुशलता दिखाई पड़े वह कुशलता नहीं है। वह दिखाई नहीं पड़नी चाहिए। वह भूल जानी चाहिए; उसका स्मरण भी नहीं होना चाहिए। 'सर्वश्रेष्ठ वाग्मिता तुतलाहट जैसी लगती है।' उपनिषद तुतलाहट जैसे लगते हैं। ऋषि जो कह रहे हैं, कहते वक्त उन्हें साफ है कि वे उसे कह न पाएंगे। क्योंकि जिसे वे कहने की कोशिश कर रहे हैं वह कहे जाने के बाहर है; एक असंभव प्रयास है, जो नहीं कहा जा सकता उसको कहने का । लाओत्से के वचन खुद तुतलाहट जैसे लगते हैं । साफ नहीं दिखता कि लाओत्से क्या कह रहा है; लड़खड़ाता लगता है। और हर चीज के विपरीत को भीतर जोड़ देता है। इधर कहता है कि ईश्वर पास है तो तत्क्षण कहता है कि ईश्वर दूर है। वह जो भी कहता है उसको खंडित करता है तत्क्षण। क्योंकि डर है कि जो कहा जा रहा है कहीं गलत न समझ लिया जाए। इसलिए विपरीत को जोड़ दो, ताकि संतुलन बना रहे। जितने भी महान वचन हैं, वे सभी तुतलाहट जैसे हैं । वेद के वचन हैं, उपनिषद के वचन हैं, बिलकुल तुतलाहट जैसे हैं। जैसे जिन्होंने कहा है उन्हें कहना आता ही न हो। ऐसी बात नहीं है । कहना उन्हें खूब आता है। लेकिन जो वे कह रहे हैं वह कहे जाने योग्य नहीं है। वह शब्द से इतने दूर है कि जब खींच-तान कर उसे शब्द तक लाते हैं तो अधमरा हो जाता है। शब्द में प्रवेश करवाते हैं, तब तक वे पाते हैं, उसकी सांस टूट गई । और जब तक वह शब्द आपके पास पहुंचता है तब आपके चेहरे पर जो दिखाई पड़ता है, उससे और, जो कहने की कोशिश कर रहा है, उसे लगता है, बेहतर है चुप हो जाए। जीसस बार-बार कहते हैं, तुम्हारे पास कान हैं तो मैं जो कहता हूं उसे सुनो; तुम्हारे पास आंखें हैं तो जो मैं दिखा रहा हूं उसे तुम देख लो। बुद्ध ने एक प्रवचन में कहा है कि तुम अगर यहां मौजूद हो तो मैं जो कहता हूं उसे सुन लो । तुम यहां मौजूद हो! जो लोग मौजूद थे, मौजूद थे ही। लेकिन आप बैठे हुए हैं, इससे पक्का नहीं होता कि आप मौजूद हैं। आप हजार जगह हो सकते हैं। आप इतने कुशल हैं हजार जगह होने में। संभावना तो यह है कि जहां आप होंगे वहां आप न होंगे।

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