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मैं अंधेपन का इलाज करता हूं
के सब संगठन विसर्जित हो जाने चाहिए। लेकिन वे राजी नहीं हैं। अब वे सब दुश्मन का काम कर रहे हैं। इसीलिए नए धर्मों की जरूरत होती है, ताकि पुराने जो सड़ गए हैं वे विदा हो सकें।
तो एक संगठन अगर मैं बनाता हूं तो इसी खयाल से कि जब वह सड़ जाएगा तो कोई दूसरा बनाएगा और उस सड़े से जो लोग मुक्त हो सकते हैं उनको मुक्त कर लेगा, बाहर कर लेगा। जो मरने को ही तय किए बैठे हैं वे कहीं भी उपाय खोजते, वे इसी में मरेंगे, इसी में उपाय खोजेंगे। पर एक बात तय है कि दो उपाय हैं जीवन के संबंध में सोचने के। या तो हम गलत के संबंध में सोचें कि क्या गलत होगा। तब कुछ करना संभव नहीं है। या हम ठीक के संबंध में सोचें कि क्या लाभ होगा। तो कृष्णमूर्ति निरंतर यही सोचते रहते हैं कि नुकसान क्या होगा। बहुत नुकसान हैं। आप एक मकान बनाते हैं। आप जानते हैं कि मकान बनाने में कितने खतरे हैं-भूकंप आ सकता है, मकान गिर सकता है, जान ले ले किसी की। अगर ऐसा सोचते रहें तो आप मकान नहीं बना सकते। लेकिन मकान क्या कर सकता है, उस पर अगर ध्यान रखें तो इतनी चिंता की जरूरत नहीं है। लेकिन चिंता पकड़ती है। मैं एक छोटी सी कहानी कहूं।
एक अणु वैज्ञानिक, एक एटामिक साइंटिस्ट समझा रहा था अणु के खतरे के संबंध में। जैसे आप यहां इकट्ठे हैं ऐसे लोग इकट्ठे थे। और उसने खतरे बड़े साफ समझाए। सामने ही बैठा हुआ एक आदमी कंपने लगा। वह
वैज्ञानिक भी थोड़ा चिंतित हुआ उस आदमी को देख कर। वह एकदम पीला पड़ा जा रहा है। वह वैज्ञानिक भी डरा। उसने कहा, इतने मत घबड़ाएं। अगर बम आपके नगर पर भी गिरे तो भी बचने के उपाय हैं। और ऐसी अभी कोई संभावना भी नहीं है। मैं तो सिर्फ सैद्धांतिक खतरा समझा रहा हूं। पर वह आदमी घबड़ाए ही चला जा रहा है। तो उसने कहा कि बिलकुल मत घबड़ाएं, एक करोड़ में एक ही मौका है कि आपकी हत्या एटम बम से हो। वह आदमी 'एकदम बेहोश होने लगा, उसने कहा कि अवसर की तो बात ही मत करें, डोंट टाक एबाउट चांसेस। क्योंकि पिछले ही साल एक करोड़ आदमियों ने टिकट खरीदी लाटरी की और मुझको इनाम मिल गया है। नहीं, यह तो बात ही मत करें। इससे तो मेरी छाती और फटी जाती है कि यह तो खतरा है ही। एक करोड़ में एक मुझे इनाम मिला है।
संगठन का खतरा है, शब्द का खतरा है, शास्त्र का खतरा है; लेकिन उसके लाभ भी हैं। और खतरा उठाने जैसा है। बस एक ही बात खयाल में रहनी चाहिए कि सब चीजें मरणधर्मा हैं। धर्म हों, संगठन हों, शास्त्र हों, शब्द हों, सब मरणधर्मा हैं। और जब कोई मर जाए तो उसकी लाश नहीं ढोनी चाहिए। बुद्ध ने कहा है कि जब तुम पार हो जाओ नदी के तो मेरे शब्दों को, मेरे धर्म को, मेरे विचारों को ऐसे ही छोड़ देना जैसे कोई नाव को छोड़ देता है। उसको सिर पर मत ढोना। यही बुद्धिमत्तापूर्ण मालूम होता है। जो चीज सड़ जाए उसे छोड़ देना। - अब बच्चा आपके घर में पैदा होता है। पक्का है कि यह बढ़ा भी होगा और मरेगा भी। तो आप एक बच्चे को पैदा करके दुनिया में एक मरने की घटना के कारण बन रहे हैं। तो बच्चा पैदा मत करें। यह हम जानते हैं कि बूढ़ा होगा, मरेगा। इसलिए समझदारी इसमें है कि पैदा करें, बच्चे को बड़ा भी करें, लेकिन जब वह मर जाए तो उसकी लाश को घर में सम्हाल कर मत रखें। उसको जाकर, मरघट है उसके लिए भी, वहां उसको विश्राम करवा दें।
धर्म भी मरने चाहिए, संगठन भी मरने चाहिए, शास्त्र भी मरने चाहिए। नए तो पैदा होते जाते हैं। पुरानी लाशें हम ढोए चले जाते हैं। उससे उपद्रव है। नए के पैदा होने में कोई खतरा नहीं, पुराने के ढोने में खतरा है। जब आपको लगने लगे कि कोई चीज मृत हो गई तो उसे छोड़ने का साहस जीवन का लक्षण है।
किसको अच्छा लगता है, मां मर जाए तो उसको जलाना? लेकिन फिर भी जलाना पड़ता है। पिता मर जाते हैं - तो किसको अच्छा लगता है? रोते हैं, छाती पीटते हैं, फिर भी मरघट पर पहुंचा कर जला ही आते हैं। लेकिन धर्म भी
मर जाते हैं। बड़े प्यारे थे कभी, जीवित थे। कभी उनसे अनेकों को जीवन मिला था, सुगंध मिली थी; जीवन में प्रकाश मिला था। पर अब नहीं मिलता, अब अंधेरा है सब वहां। लेकिन हम छाती पर ढोए चले जाते हैं।
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