Book Title: Tao Upnishad Part 04
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

View full book text
Previous | Next

Page 344
________________ ताओ उपनिषद भाग ४ 334 पर ध्यान रहे, आत्मा आप में हो सकती है; यह पोटेंशियलिटी है। आप जब पैदा हुए हैं तो सिर्फ शरीर और मन की तरह पैदा हुए हैं। आत्मा तो बहुत छिपी है— बहुत दूर गहरे में। उससे अभी अंकुर भी नहीं फूटा है। यह शरीर और मन ने व्यवस्था जुटाई है। ये भूमि की तरह हैं। अंकुर फूट सकता है। अगर थोड़ा श्रम किया जाए तो वह आत्मा वृक्ष बन सकती है और उसमें फूल लग सकते हैं। ऐसे जब किसी वृक्ष में फूल लग जाते हैं, तभी हम कहते हैं, व्यक्ति बुद्धत्व को उपलब्ध हुआ। सभी लोग बुद्ध नहीं हैं। सभी लोग बुद्ध हो सकते हैं, लेकिन मुश्किल से कभी कोई हो पाता है। यह प्रतीति कि हमारे भीतर आत्मा है ही, खतरनाक है। कोशिश करनी होगी। सोया है जो उसे जगाना होगा, छिपा है जो उसे प्रकट करना होगा। पत्थरों में दबा है जो झरना उसे पत्थर हटा कर राह देनी होगी। इस कारण भी हममें से बहुत लोग जीवन की ऊर्जा को पदार्थों को इकट्ठा करने में लगा देते हैं। दूसरा भी एक गहरा कारण है। हमें आत्मा का कोई अनुभव भी नहीं है, स्वाद भी नहीं है। और जिसका स्वाद न हो, जिसका कोई अनुभव न हो, उसको पाने के लिए हम कुछ करें भी कैसे ? उसकी वासना भी कैसे जगे? उसके पाने की प्यास भी हम कैसे पहचानें? और चारों तरफ हमारे पागलों का समाज है । वे सब पदार्थों को पाने में, दौड़ने में लगे हैं। उनके साथ अगर हम न दौड़ें तो हम पागल मालूम होते हैं। भीड़ बड़ी है। उस भीड़ में ही हमारा जन्म होता है। बच्चा इसके पहले कि होश से भरे, पागल उसे ठीक से पागल बनाने का पूरा इंतजाम किए हुए हैं। छोटे बच्चों को जरूर आपकी चीजों पर हंसी आती है। छोटे बच्चों की निर्दोष आंखों में जरूर दिखाई पड़ता है कि कुछ पागलपन हो रहा है। क्योंकि छोटे बच्चों की यह समझ के बाहर है कि एक आदमी बड़ा मकान बनाने में जिंदगी भर नष्ट कर दे, कि धन तिजोड़ी में भरने में सब कुछ गंवा दे, अपना सब कुछ लगा दे। लेकिन इसके पहले कि बच्चे का निर्दोष भाव सबल हो पाए, हम सब चारों तरफ से इकट्ठा होकर उसकी गर्दन घोंट देंगे। हमारी शिक्षा, हमारा स्कूल, विश्वविद्यालय, समाज, सब महत्वाकांक्षा सिखा रहा है— दौड़ो, तेजी से दौड़ो, और जितना ज्यादा इकट्ठा कर सको कर लो; समय बीता जा रहा है, और संपत्ति एकमात्र सहारा है। इस कारण भी प्रत्येक व्यक्ति इस मूर्च्छा में दौड़ना शुरू हो जाता है। लेकिन बुद्धिमान उसको ही कहेंगे जो इस पागलपन, इस आब्सेशन, इस विक्षिप्तता से थोड़ा सजग हो सके। सोच-विचार उसके भीतर ही माना जा सकता है जो थोड़ा खड़ा होकर सोचे कि मैं क्यों दौड़ रहा हूं! और जिसे पाने के लिए दौड़ रहा हूं, अगर मैंने पा भी लिया तो क्या होगा ! सिकंदर आ रहा है हिंदुस्तान । वह एक फकीर डायोजनीज को मिलता है। डायोजनीज उससे कुछ सवाल पूछता है। उसमें एक सवाल यह है कि तूने अगर पूरी दुनिया जीत भी ली तो फिर, फिर तू क्या करेगा? कहते हैं, सिकंदर यह सुन कर उदास हो गया। और उसने कहा कि डायोजनीज, तुमने ऐसी बात कही कि तुमने मुझे बड़ी निराशा से भर दिया। सच, अगर मैं पूरी दुनिया जीत लूंगा तो फिर क्या करूंगा ! यह मैंने कभी सोचा नहीं। और दूसरी कोई दुनिया नहीं है, डायोजनीज ने कहा। तुम बड़ी मुश्किल में पड़ जाओगे । सिकंदर जब विदा होने लगा तो उसने डायोजनीज को कहा कि अभी तो रुकना मुश्किल है; आधी दुनिया तो मैं भी चुका। लेकिन जब मैं पूरी दुनिया जीत लूंगा तो मैं आऊंगा। तुमसे मैं प्रभावित हुआ हूं। तुम्हारी शांति और तुम्हारा आनंद मुझे छू गया है। डायोजनीज ने कहा कि अगर तुम प्रभावित हुए हो तो रुक जाओ। वही कसौटी होगी प्रभावित होने की। लेकिन सिकंदर ने कहा, अब आधी योजना को छोड़ना उचित नहीं है। ऐसे मैं समझता हूं कि पूरी दुनिया जीत कर भी क्या होगा, लेकिन अब आधे काम को छोड़ना उचित नहीं है। मैं पूरा काम करके लौटूंगा । डायोजनीज ने कहा, अब तक कोई अपनी कोई योजना कभी पूरी नहीं कर पाया है। तुम आधे में ही मरोगे ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444