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ताओ उपनिषद भाग ४
अगर इसे हम ऐसा कहें तो ठीक होगा कि किए हुए की ही मृत्यु होती है; जो न किए में जाना है उसकी कोई मृत्यु नहीं है। आत्म-अनुभव अमृत का अनुभव है, क्योंकि वह न किए में उपलब्ध होता है।
'इसके जरिए मैं जानता हूं कि अक्रियता का लाभ है। शब्दों के बिना उपदेश करना, और अक्रियता का जो लाभ है वह ब्रह्मांड में अतुलनीय है।'
शब्दों के बिना उपदेश करना निश्चित ही अतुलनीय है। क्योंकि बड़ी जटिल घटना है। और दो शिखर हों तभी घट सकती है। पहले तो वह व्यक्ति उपलब्ध हो जो अक्रिय होने की कला में निष्णात हो गया हो, सिद्ध हो गया हो। उसको ही हम गुरु कहते हैं, जिसने वह जान लिया जो बिना किए जाना जाता है; उसके जीवन का शिखर निर्मित हो गया। पर इतना काफी नहीं है। क्योंकि यह शिखर केवल उसी से संवाद कर सकता है जो शून्य हो जाए, चुप हो जाए-क्षण भर को सही-मौन हो जाए। तो इसकी शून्यता उसमें तीर की तरह प्रवेश कर जाए।
उपनिषद के दिनों में कुल साधना इतनी ही थी कि लोग जाएं और गुरु के पास बैठे। उपनिषद का मतलब है : गुरु के पास बैठना। शब्द का भी इतना ही मतलब है कि गुरु के पास बैठना, गुरु के पास होना। कुछ गुरु काम कहे छोटा-मोटा तो कर देना, फिर उसके पास बैठ जाना। उसके पास होने की बात है। क्योंकि किसी क्षण में, बैठे-बैठे शिष्य वहां, शांत हो जाएगा। उस शांत क्षण में ही गुरु बोल देगा।
लोग कहते हैं, गुरु-मंत्र कान में दिया जाता है। मगर आदमी तो पागल है और जो प्रतीक हैं-गहरे प्रतीक हैं-उनको भी क्षुद्र कर लेता है। इसे लोगों ने समझा कि इसका मतलब यह है कि गुरु आपके कान में मुंह लगा कर, और मंत्र दे देगा। तो गुरु हैं जो कान फूंकते हैं, कान में मंत्र देते हैं।
कान में मंत्र देने का मतलब यह था कि जो बिना बोले दिया जाता है। बोल कर ही देना है तो कितने दूर से दिया कान से, इससे कोई सवाल नहीं है। एक फीट की दूरी से बोले, कि पांच इंच की दूरी से बोले, कि बिलकुल कान पर मुंह रख कर बोले-लेकिन बोल कर ही बोले हैं-कोई मूल्य नहीं है। कान में मंत्र देना सिर्फ एक गुह्य प्रतीक है। उसका मतलब यह है कि बिना बोल कर दिया गया है। ठेठ कान में दिया गया है, शब्द नहीं डाला गया है। ओंठ का उपयोग नहीं किया गया है। सिर्फ पात्र का उपयोग किया गया है, कान का उपयोग किया गया है, लेने वाले का उपयोग किया गया है; बोलने वाले ने कुछ भी नहीं कहा है। सिर्फ सुनने वाले ने सुना है और बोलने वाला चुप रहा है। उस चुप्पी में जो संवाद है, उस चुप्पी में जो विचार का संप्रेषण है।
शब्दों के बिना उपदेश करना निश्चित ही अतुलनीय है। क्योंकि कभी ऐसा घटता है। हजारों साल में कभी एक बार ऐसी घटना घटती है। गुरु बहुत हैं, शिष्य बहुत हैं। पर हजारों साल में कभी ऐसी घटना घटती है। इसलिए लाओत्से कह रहा है, अतुलनीय है। इसकी तुलना होनी मुश्किल है।
बुद्ध के पास हजारों शिष्य थे, लेकिन जो भी उन्होंने कहा वह शब्द से ही कहा। जो भी उन्होंने सुना वह शब्द से ही सुना। सिर्फ एक शिष्य था, महाकाश्यप, जिसको बुद्ध ने कहा कि तुझे मैं वह कहता हूं जो कहा नहीं जा सकता। एक दिन सुबह ही सुबह बुद्ध एक कमल का फूल लेकर आए, बैठ गए। लोग प्रतीक्षारत। उनकी बेचैनी बढ़ने लगी कि वे बोलें, क्योंकि वे सुनने को आए हैं, बुद्ध को पीने को नहीं। वे पात्र नहीं हैं खाली, शब्दों से भरे हुए मन हैं। वे बेचैन हैं। और ऐसा कभी नहीं हुआ। बुद्ध आते थे, बैठते थे; और बोलना शुरू कर देते। उस दिन वे चुप हैं, और फूल को देखे चले जा रहे हैं। बुद्ध फूल को देख रहे हैं, शिष्य बुद्ध को देख रहे हैं, और सब बेचैन हैं। थोड़ी देर में शांति उद्विग्न हो गई और लोग एक-दूसरे से फुसफुसाने लगे कि क्या मामला है! आखिर एक शिष्य ने खड़े होकर पूछा कि आज क्या बात है? बड़ी देर हो गई, और हम सुनने को उत्सुक हैं। तो बुद्ध ने आंखें ऊपर उठाईं, फूल हाथ में उठाया। और बुद्ध ने कहा, इतनी देर से मैं क्या कर रहा हूं, मैं बोल रहा हूँ!
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