Book Title: Tao Upnishad Part 04
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 340
________________ ताओ उपनिषद भाग ४ 330 जब कोई प्रेम से, या ज्ञान से, या आनंद से भर जाता है तो देता है। इसलिए नहीं कि आपको जरूरत है, बल्कि इसलिए कि उसके पास ज्यादा है और उसके प्राण बोझिल हैं। और तब देता है तो आप अनुगृहीत नहीं होते, वह खुद ही अनुगृहीत होता है कि आपने लिया । आप इनकार भी कर सकते थे। इसलिए प्रेम सदा अनुगृहीत होता है। कि कोई मिल गया जिसने मुझे उलीचने में सहायता दी, जिसने मुझे हलका होने में सहायता दी, जिसने मेरा बोझ कम किया, जिसने मुझे बांटा, जो राजी हुआ मुझे लेने को । अनुग्रह, देने वाला अनुभव करता है। प्रेम की ऐसी घटना घटे तो जिसे हम त्याग कहते हैं वह त्याग नहीं रह जाता, वह महाभोग हो जाता है। क्योंकि देने वाला देने में आनंदित हो रहा है, त्याग का कोई कारण नहीं है। और देने वाला देकर और ज्यादा पा रहा है – आपसे नहीं, देने के घटने में ही पाना है। कभी अगर आपके जीवन में कोई एकाध झलक भी देने की कभी आती है, तो इसे थोड़ा समझना । अगर आप एक गिरे हुए आदमी को हाथ का सहारा भी दे देते हैं तो एक बड़ी और आनंद की प्रतीति आपको होती है। इसलिए नहीं कि वह जो गिरा हुआ आदमी उठ गया है, वह लौट कर कुछ देगा। नहीं, उस उठाते क्षण में ही आप फैल कर ब्रह्म के साथ एक हो जाते हैं। जब भी आप कुछ देते हैं तब आप फैलते हैं। और सब फैलाव का अनुभव ब्रह्म का अनुभव है। लेकिन देना हो बेशर्त, कोई मांग छिपी न हो, अचेतन में भी कोई आकांक्षा न हो। और देते ही अनुग्रह का भाव पकड़ ले कि एक अवसर मिला, एक परिस्थिति बनी कि मैं कुछ बांट सका और फैल सका। मेरे देखे, प्रेम ही एकमात्र वास्तविक त्याग है। लेकिन उसे त्याग कहना उचित नहीं, क्योंकि त्याग में ऐसा लगता है कि छोड़ते समय कुछ कष्ट हुआ हो। त्याग शब्द में कुछ कष्ट है। कष्ट इसी कारण उस शब्द में जुड़ गया है। कि कंजूसों ने त्याग किया है, और उन्होंने बड़ा कष्ट पाया है त्याग करते वक्त । और हम सब कंजूस हैं। और जब हम किसी को त्यागते देखते हैं तो हमें लगता है कि कितनी पीड़ा न हो रही होगी! जैन महावीर की कथा लिखते हैं कि इतने हाथी, इतने घोड़े, इतने रथ, इतने महल, इतना सब धन, इस सबका उन्होंने त्याग किया। वह एक-एक घोड़े - हाथी की संख्या उन्होंने शास्त्रों में लिख रखी है। यह जिन्होंने भी लिखा है, ये कृपण और कंजूस रहे होंगे। यह हिसाब कंजूस का हिसाब है। और इन कंजूसों को लगा होगा कि कितना कष्ट महावीर नहीं उठा रहे हैं! और महावीर कष्ट उठा रहे हों तो त्याग व्यर्थ हो गया। महावीर जरा भी कष्ट नहीं उठा रहे हैं। महावीर महल में कष्ट में रहे हों, महल छोड़ कर उनके चेहरे पर कष्ट की कोई छाया नहीं देखी गई। महावीर ने कुछ छोड़ा हो तो कष्ट छोड़ा है। और यह त्याग किसी और आंतरिक घटना से उठ रहा है। यह बांटने का अनुभव और आनंद है। थोड़ी सी बातें खयाल में ले लें, फिर हम इस सूत्र में प्रवेश कर सकेंगे। 'मनुष्य किसे अधिक प्रेम करता है, सुयश को या स्वयं की निजता को ?” एक तो आप हैं, अपनी निजता में, अपने भीतर। अगर सारा जगत खो जाए, सारी मनुष्यता तिरोहित हो जाए, आप अकेले बचें, उस क्षण जो बचेगा वह आपकी निजता है । सोचना भी कठिन है कि क्या बचेगा आपके भीतर । साधारणतः तो आपको लगेगा कुछ भी नहीं बचेगा, क्योंकि निजता का आपको कोई पता ही नहीं है। कुछ लोग हैं जो आपको कहते हैं, सज्जन हैं। अगर वे कल खो गए और आप अकेले बचे तो आप अपने को सज्जन न कह सकेंगे। वह किन्हीं लोगों की धारणा थी आपके प्रति, उन्हीं साथ खो गई। कुछ लोग आपको महात्मा, संत पुरुष, साधु मानते होंगे। अगर वे खो जाएंगे तो कल आप उनके बिना साधु न हो सकेंगे। वह उनकी मान्यता थी । कोई आपको प्रतिष्ठा देता है, या कोई अपमान करता है; कोई मित्र है, कोई शत्रु है; कोई पक्ष में है, कोई विपक्ष में है । ये सारे लोग खो जाएंगे। और अभी आप जो कुछ भी अपने को मानते हैं, वह इन सबकी धारणाओं का जोड़ है। आपके पास क्या बचेगा ?

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