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अस्तित्व अवस्तित्व से घिरा है
भी चिंता न थी वहां सब चिंताएं शुरू हो गईं। अब श्वास भी खुद लेनी है। भोजन की भूख लगेगी तो अब खुद ही चिल्लाना और रोना है और आवाज करनी है। प्यास लगेगी तो खुद ही प्रयास करने हैं। कुछ न कुछ संकेत देने हैं कि मुझे प्यास लगी है। चिंता शुरू हो गई। अपनी कमियां खुद ही पूरी करनी हैं। अपने अभाव खुद को ही प्रतीत होने लगे। मां के सुरक्षित जगत से बच्चा अपने असुरक्षित अहंकार में प्रवेश कर गया।
. इसलिए हर आदमी रोता हुआ पैदा होता है। यह आश्चर्यजनक नहीं है। लेकिन हर आदमी रोता हुआ मरता है, यह बहुत आश्चर्यजनक है। क्योंकि अगर जन्म इतना दुखद है तो मृत्यु इससे विपरीत होनी चाहिए। यह तो सीधा तर्क है, साफ गणित है। अगर जन्म इतना दुखद है, अगर अस्तित्व से टूटना और अहंकार बनना और व्यक्ति बनना, इतना पीड़ादायी है कि रोता हुआ जन्म होता है और बच्चे के चेहरे पर चिंताओं की रेखाएं खिंच जाती हैं, फिर खिंचती चली जाती हैं, यह तो समझ में आता है। पश्चिम का मनोविज्ञान इसको ट्रॉमा कहता है। यह एक बात हुई। लेकिन अभी पश्चिम का मनोविज्ञान इसका दूसरा पहलू नहीं खोज पाया; उसको खयाल में नहीं है। हम उसको समाधि कहते हैं, हम उसको आनंद कहते हैं, जो मृत्यु के पहले-जैसा जन्म के पहले अलग होने में पीड़ा हुई थी तो मृत्यु में फिर एक हो रही है चेतना, उतना ही आनंद होना चाहिए। अगर उतना आनंद वहां नहीं हो रहा तो आप अधूरे मर गए। आपने जन्म तो लिया, लेकिन मृत्यु का रस न ले पाए। आपको फिर जन्म लेना पड़ेगा। क्योंकि मृत्यु की शिक्षा एकदम जरूरी है-मां के पेट से बाहर आना और फिर गर्भ में प्रकृति के प्रवेश करना।
मृत्यु क्या है? अस्तित्व में वापस डूब जाना; एक परम विश्राम। जहां मुझे श्वास न लेनी होगी, जहां अस्तित्व श्वास लेगा। हवाएं तो न रुक जाएंगी, हवाएं बहती रहेंगी। जीवन तो धड़कता रहेगा, मेरी धड़कन के साथ जीवन की धड़कन न मिट जाएगी। इतना ही होगा कि मेरी जो अलग धड़कन थी वह उस महाधड़कन में लीन हो जाएगी। सब ऐसा ही होगा। जीवन का महाउपक्रम चलता रहेगा, यह महाउत्सव चलता रहेगा, जीवन नाचता रहेगा। लेकिन मेरे पैर अलग से न नाच सकेंगे। मेरे पैर लीन हो जाएंगे उस महानृत्य में, जो विराट का है।
आपने देखा, हम मूर्तियां बनाते हैं शंकर की, हजारों हाथ से नाचते हुए। आपको खयाल में नहीं होगा कि क्यों हम ऐसा बनाते हैं। और जब पहली दफा कोई पूरब की कला से परिचित होता है तो उसको लगता है, यह कुछ अजीब सा मामला है; एकदम अयथार्थ है। कहीं ऐसे हजार हाथ होते हैं। ऐसे अनंत हाथ होते हैं कि अनंत हाथों से कोई नाच रहा है! यह प्रतीक इस बात का है कि सभी हाथ इस महानृत्य में लीन होते जाते हैं; सभी हाथ उसी के हैं।
मुझे याद आता है; मैंने एक आयरिश कथा सुनी है। एक बूढ़ी वृद्धा बहुत चिंतित, पीड़ित और दुखी थी। मौत करीब आती थी। बिस्तर पर लग गई थी; बिस्तर से उठना भी मुश्किल था। और आखिरी चिंता जो मन को बहुत काले बादल की तरह घेरे थी, वह यह थी कि उसे लगता था कि उसका संबंध ईश्वर से टूट गया है। कोई संबंध उसे मालूम नहीं होता था, कोई भाव ईश्वर के प्रति बहता नहीं मालूम होता था। और मौत करीब आती थी और ईश्वर से कोई लगाव, कोई सेतु बीच में नहीं रह गया। जीवन ने सब सेतु गिरा दिए।
एक मित्र उसे देखने आया था। तो मित्र ने कहा, तू चिंता मत कर, ईश्वर का भाव आखिरी क्षण तक भी पुनः पाया जा सकता है। क्योंकि वस्तुतः हम उससे कभी टूटते नहीं, खयाल ही होता है कि टूट गए। क्योंकि टूट जाएं तो हम मिट ही जाएं। तो तू चिंता मत कर, तू आंख बंद कर और प्रार्थना कर। और उससे ही कह कि मैं तो असमर्थ हूं, मेरे हाथ छोटे हैं, तुझ तक कैसे फैलाऊं! लेकिन तेरे हाथ तो अनंत हैं, तेरा हाथ तो विराट है; तू अपने हाथ को फैला और मेरे सिर पर रख।
वृद्धा ने आंख बंद कर ली; खुशी के आंसू उसकी आंख से बहने लगे; चिंता एक नई पुलक में बदल गई। और उसने प्रार्थना की कि हे परमात्मा, मेरे हाथ छोटे हैं, मैं तुझे खोजूंगी तो भी नहीं खोज पाती; टटोलूं तो भी तुझ
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