Book Title: Tao Upnishad Part 04
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 285
________________ मैं अंधेपन का इलाज करता हूं हवाएं आपको छुएंगी। लेकिन आप बेहोश हैं। और इसी बेहोशी में आपको बगीचे का पूरा भ्रमण करवा कर वापस ले आया जाए। तो जब आप होश में आएंगे तब शायद आप कहें भी कि कुछ अच्छा-अच्छा लगता है, कुछ ताजगी मालूम पड़ती है। क्योंकि वह बगीचा कुछ अनजान छाया तो छोड़ ही गया होगा। लेकिन आपको कुछ पता नहीं; न फूलों के उस आनंद का, न फूलों के खिलने का, न पक्षियों के गीत का, न उस संगीत का जो उन हवाओं में था जो वृक्षों से गुजरती थीं, न उस शांति का, न उस हरियाली का। नहीं, आपको उस सबका कुछ भी पता नहीं है। फिर उसी बगीचे में आप होशपूर्वक जाएं; जागे हुए। ठीक प्रकृति में सभी कुछ आनंद में डूबा हुआ है, लेकिन होश नहीं है। आदमी वापस होश का अनुभव करके डूबता है। इस अनुभव की प्रक्रिया में दुख उठाना पड़ता है। क्योंकि जो बेहोशी में मिलता था, बेहोशी छूटते ही खोने लगता है; होश आते ही छूटने लगता है हाथ से, विलीन होने लगता है। तो आदमी जैसे-जैसे होश से भरता है वैसे-वैसे दुखी होता चला जाता है। बच्चे कम दुखी हैं; बूढ़े बहुत ज्यादा दुखी हो जाते हैं। क्योंकि बूढ़े को कुछ होश आ गया। जिंदगी की सब चीजें दिखाई पड़ने लगी-सब व्यर्थ था। सब दायित्व, सारी दौड़-धूप, सारी थकान, सारी ऊब साफ हो गई। बूढ़ा ज्यादा दुखी है। बच्चा-अभी पता नहीं है उसे। बच्चा अभी भी प्रकृति से ज्यादा दूर नहीं गया है। अभी बहुत करीब ही खेल रहा है। लेकिन अभी होश नहीं है। इसलिए जीसस ने कहा है, जो पुनः बच्चे की भांति हो जाते हैं, वे धन्यभागी हैं। पुनः! जो बूढ़े होकर फिर बच्चे जैसे हो जाते हैं। पर इस होने का अर्थ ही यह हुआ कि अब होशपूर्वक बच्चे जैसे हो जाते हैं, जागे हुए बच्चे जैसे हो जाते हैं। लौटना है गंगोत्री पर ही, मूल उदगम पर ही, लेकिन होश को कमा कर लौटना है। संसार जागरण की एक प्रक्रिया है। तीसना प्रश्न : विपरीत विपरीत को आकर्षित करता है। इस नियम के अधीन, बुद्ध पुरुषों के इर्द-गिर्द मूढ़ व्यक्ति इकट्ठे हो जाते हैं। तो क्या वे सब ज्ञानीजन है जो उनके सान्निध्य से दूर ही रहते हैं? वे महामूढ़ हैं। क्योंकि जो बुद्ध के करीब आते हैं...करीब आते हैं, मूढ़ हैं इसीलिए करीब आएंगे। क्योंकि बुद्ध के पास कोई बुद्ध पुरुष तो किसलिए करीब आएगा? कोई जरूरत ही न रही। चिकित्सालय में कोई जाता है इसलिए कि रुग्ण है। बुद्ध के पास कोई आता है इसलिए कि अज्ञानी है और ज्ञान की तलाश है। लेकिन जो अज्ञानी ज्ञान की तलाश में लग गया, ज्ञान का जन्म शुरू हो गया। इसलिए जो दूर रह जाते हैं उनको मैं कहता हूं, महामूढ़ हैं। रुग्ण हैं, और फिर भी चिकित्सक के पास नहीं जाना चाहते। रुग्ण हैं, फिर भी अहंकार रोकता है यह भी कहने से कि मैं बीमार हूं। क्योंकि चिकित्सक को इतना तो कहना ही पड़ेगा कि मैं बीमार हूं। बुद्ध के पास इतना तो कहना ही पड़ेगा कि मैं अज्ञानी हूं। तभी तो ज्ञान की प्रक्रिया शुरू हो सकती है। इतना भी स्वीकार करना पीड़ा देता है। इसलिए महामूढ़ बुद्ध के पास नहीं पहुंच पाते। मूढ़ पहुंचते हैं। लेकिन इन मूढ़ों में भी कई तरह के मूढ़ होंगे, तरह-तरह के होंगे। कुछ होंगे जो सजग हो जाएंगे अपनी मूढ़ता के प्रति और बुद्ध के निकट अपनी मूढ़ता को काटने का उपाय करेंगे। कुछ होंगे जो सजग न होंगे, बल्कि बुद्ध की बातों से अपनी मूढ़ता को ही भरने का उपाय करेंगे। बुद्ध का उपयोग भी अपनी मूढ़ता के लिए ही करने वाले लोग भी हैं। उनसे ही खतरा है। स्वभावतः, जब एक मूढजन ज्ञानी के पास आता है तो वह उसकी पूरी बातें तो नहीं समझ सकता। असंभव है। लेकिन अगर उसे खयाल हो कि मैं समझ तो नहीं सकता, इतनी विनम्रता हो और समझने की चेष्टा करता रहे, तो ठीक। लेकिन अगर, जो भी वह समझ लेता है, समझता हो कि मैंने समझ लिया, और 275

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