________________
ताओ उपनिषद भाग ४
और न इतनी आंखें गहरी हैं कि बिना प्रचार के चल जाए। इसलिए पश्चिम के मनोवैज्ञानिक सलाह देते हैं कि चाहे तीस साल, और चाहे तीन सौ साल हो जाएं, तो भी रोज सुबह उठ कर घंटियां बजाना और प्रचार करना। क्योंकि सिर्फ प्रचार ही दिखाई पड़ता है। और प्रचार करते-करते ही असत्य भी सत्य हो जाते हैं।
एडोल्फ हिटलर ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि सत्य का कोई और अर्थ नहीं है; ऐसा असत्य जिसका काफी दिनों से प्रचार किया गया है सत्य हो जाता है। और एडोल्फ हिटलर ने अपने जीवन से ही सिद्ध कर दिया कि असत्य को दोहराए चले जाओ, फिक्र मत करो, दोहराए चले जाओ, आज नहीं कल वह सत्य हो जाएगा। दोहराने वाले की क्षमता पर निर्भर है कि असत्य सत्य होगा या नहीं। कान पर पड़ता ही रहे, पड़ता ही रहे, तो सुनते-सुनते, सुनते-सुनते भरोसा आ जाता है।
आप हिंदू हैं। आपने कभी खोज की है कि हिंदू होने में क्या सत्य है? या आप मुसलमान हैं। क्या कभी आपने खोज की है कि मुसलमान होने का क्या अर्थ है? नहीं, सिर्फ प्रचार है, लंबा प्रचार है। और प्रचार इतना लंबा है कि पीढ़ी दर पीढ़ी चला आया है; आपके खून और हड्डी में प्रवेश कर गया है। और जब आप पैदा होते हैं तब से प्रचार शुरू हो जाता है। जब आप होश सम्हालते हैं तब तक प्रचार काफी भीतर प्रवेश कर गया होता है। और . आपको खुद ही लगने लगता है कि मैं हिंदू हूं; अगर हिंदू धर्म खतरे में है तो मैं जान दे दूंगा। प्रचार सत्य हो जाता है। ___हम जी ही रहे हैं बाह्य से, और बाहर से जो हमारे भीतर डाल दिया जाता है वही हमें दिखाई पड़ता है। भीतर को देखने की क्षमता हमारी न के बराबर है
इसलिए लाओत्से कहता है, 'श्रेष्ठ चरित्र घाटी की तरह खाली प्रतीत होता है।'
क्योंकि हम अश्रेष्ठ चरित्र से परिचित हैं जो कि शिखर की तरह अपना प्रचार करता है। और हम शब्दों से जीते हैं, और श्रेष्ठ मौन होता है। और हम बाहर को देखते हैं, और श्रेष्ठ भीतर होता है। इसलिए श्रेष्ठ हमें दिखाई ही नहीं पड़ता। इसलिए अगर हम रोज धोखा खाते हैं तो किसी और का कसूर नहीं है; हम खुद ही धोखा खाने को तैयार हैं। क्योंकि हम जहां से देखते हैं वहां धोखा ही होगा। उससे गहरी हमारी आंख प्रवेश नहीं करती।
'निपट उजाला धुंधलके की तरह दिखता है।'
क्योंकि हमारी आंखें जब तक उत्तेजना तीव्र न हो तब तक देख नहीं पातीं। सुबह जब सूरज नहीं निकलता तब जो उजाला होता है वह निपट उजाला है। उसमें चकाचौंध नहीं है, उसमें उत्तेजना नहीं है, उसमें तीव्रता नहीं है, उसमें चोट और आक्रमण नहीं है; अनाक्रामक, अहिंसक उजाला है। लेकिन वह हमें धुंधलके की तरह दिखता है। जब सूरज उग आता है और उसकी प्रखर किरणें हमारी आंखों को भेदने लगती हैं तब हमें लगता है कि उजाला हुआ।
हमारी सभी संवेदनशीलताएं क्षीण हो गई हैं, मंद हो गई हैं। जैसा हमारा स्वाद मंद हो गया है। तो जब तक मिर्च जाकर हमारी जीभ को झकझोर न दे तब तक हमें पता नहीं चलता कि कोई स्वाद है। और जो आदमी मिर्च खाने का आदी हो गया, उसके सब स्वाद खो जाते हैं। क्योंकि इतने तीव्र स्वाद के बाद फिर जो मंदिम स्वाद हैं, भद्र स्वाद हैं, वे फिर खयाल में नहीं आते। हमारी जीभ फिर उनसे संबंधित ही नहीं हो पाती। हम हिंसा के इतने आदी हो गए हैं कि कुछ भी अहिंसक घटना हमें दिखाई नहीं पड़ती-उत्तेजना, सेंसेशन, जितना तेज हो।
देखते हैं आप, संगीत रोज तेज होता चला जाता है। युवकों का जो संगीत है; जब तक बिलकुल पागल करने वाला न हो, इतने जोर-शोर से न हो कि आपकी सभी इंद्रियां चोट खाकर अस्तव्यस्त हो जाएं, तब तक युवकों को लगता है, यह कोई संगीत ही नहीं है। धीमे स्वर, भद्र स्वर, शांत स्वर सुनाई ही नहीं पड़ेंगे। कान भी हमारे उत्तेजना मांगते हैं; वस्त्र भी। जब तक कि रंग ऐसे न हों कि जो आंखों को भेद दें, ऐसे न हों कि तिलमिलाहट पैदा कर दें, तब तक रंग नहीं मालूम पड़ते।
252