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ताओ उपनिषद भाग ४
भी खड़ा है तो आप खंड-खंड हैं। और खंड-खंड व्यक्ति कितना ही दृढ़ मालूम पड़े, खंडित व्यक्ति कमजोर है। इंटिग्रेशन नहीं है; अभी एक अखंडता पैदा नहीं हुई। अखंडता ही शक्ति और दृढ़ता है। लेकिन अखंडता तो तभी पैदा होगी कि जो मेरे भीतर हो उसको रोकने वाला कोई भी न हो। अहंकार बचे ही न, मैं बच्चे की तरह हो जाऊं, जो हो वह हो।
बड़ा कठिन है। क्योंकि हमें खुद ही अड़चन मालूम पड़ेगी कि यह बात तो ठीक नहीं है, चार आदमियों के सामने कैसे रोना? लोग कहेंगे, क्या मर्द होकर स्त्रियों जैसा व्यवहार कर रहे हो? तो आदमी पुरुषों ने तो रोना ही बंद कर दिया है। लेकिन प्रकृति बड़ी जिद्दी है। वह आंसू की ग्रंथि बनाए चली जाती है। आप रोएं चाहे न रोएं, आंसू की ग्रंथि बनाए चली जाती है। आपकी आंखें रोने को सदा आतुर हैं, चाहे आप पुरुष हों चाहे स्त्री। लेकिन बच्चों को हम सिखा रहे हैं-छोटे से बच्चे को–कि क्या लड़कियों जैसा रो रहा है! वह फौरन रुक जाता है कि ठीक, मैं लड़की नहीं हूं; रोक लेता है। लेकिन हमने उस बच्चे को विकृत करना शुरू कर दिया। उसके आंसू जहर बन जाएंगे, क्योंकि रुके हुए आंसू जहर हो जाने वाले हैं।
इसलिए आप जान कर हैरान होंगे, स्त्रियों की बजाय पुरुष मानसिक रूप से ज्यादा पीड़ित होते हैं। आमतौर से होना चाहिए स्त्रियां, क्योंकि वे ज्यादा कमजोर मालूम पड़ती हैं। लेकिन पुरुष ज्यादा मानसिक रूप से बीमार होते हैं। स्त्रियों की बजाय पागलखानों में पुरुषों की संख्या ज्यादा है। कारण क्या होगा? पुरुष को ज्यादा नियंत्रण सिखाया जा रहा है। स्त्री को क्षम्य मान कर, हम समझते हैं : कमजोर है, रोती है, रोने दो। स्त्री ही है, स्वीकृत है। पुरुष जैसे ही रोने लगे वैसे ही अड़चन शुरू हो जाती है। हमने पुरुष को कृत्रिम नियंत्रण, सैनिक बनाने की कोशिश की है; उसमें वह झूठा हो गया। उसके आस-पास एक आर्मर, एक झूठा कवच हमने खड़ा कर दिया है। वह उस कवच के भीतर खड़ा है। कोई मर जाए तो भी उसे अकड़े रहना है। कुछ भी हो जाए, उसे अपने को सम्हाले रखना है।
यह सम्हालने वाला कौन है? यही हमारा अहंकार है। इसलिए जितना बड़ा अहंकारी हो उतना हमें दृढ़ मालूम होगा। और जितना निरहंकारी हो उतना ही हमें लगेगा कि यह आदमी दृढ़ नहीं है। निरहंकारी व्यक्ति सरल होगा, सहज होगा; जैसे पानी बहता है, हवा चलती है, इस तरह होगा।
'ठोस चरित्र दुर्बल दिखता है। शुद्ध योग्यता दृषित मालूम पड़ती है।'
शुद्ध योग्यता का तो हमें खयाल ही नहीं है कि क्या है। हमें तो सिर्फ सीमित योग्यता का, अशुद्ध योग्यता का पता है। ऐसा समझें। एक आदमी है, वह इंजीनियर है, और कुशल इंजीनियर है। तो हम कहते हैं, योग्य है। क्योंकि कुशल इंजीनियर है, एक दिशा में बहुत आगे चला गया। तो हम कहते हैं, योग्य मनुष्य है। लेकिन क्या यह उचित है कहना? क्योंकि इंजीनियर होने से मनुष्यता का क्या संबंध है? इंजीनियरिंग एक कुशलता है। उससे मनुष्य योग्य नहीं होता, उससे मनुष्य उपयोगी होता है। एक आदमी डाक्टर है, और कुशल डाक्टर है।
मैं एक डाक्टर को जानता हूं, एक बड़े सर्जन को। उनकी ख्याति थी दूर-दूर। देश के कोने-कोने से लोग उनके पास आपरेशन के लिए आते थे। और वे आपरेशन की टेबल पर आदमी को रख लेते, चीर-फाड़ शुरू कर देते, और तब उसके रिश्तेदारों को कहते कि पचास हजार रुपया! नहीं तो आदमी बचेगा नहीं। और वह आदमी आपरेशन की टेबल पर रखा हुआ है, बेहोश पड़ा है, चीर-फाड़ शुरू कर दी गई; तब वे कहते।।
तो कुशल सर्जन थे, पर आदमी की योग्यता का क्या संबंध है? और कुशल इतने थे कि यह लोग जानते थे, फिर भी लोग जाते। हाथ उनका अदभुत था। जब वे बूढ़े हो गए, सत्तर वर्ष के, तब भी उनका हाथ कंपता नहीं था-जरा सा नहीं कंपता था। वही उनकी कुशलता थी। लेकिन मनुष्य की कुशलता, उससे कोई संबंध नहीं है। मनुष्य वे बड़े खतरनाक थे, बिलकुल योग्य नहीं थे। मनुष्य वे ऐसे थे कि चोर-डाकू होना था; भूल-चूक से वे सर्जन
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